________________ 140 एकेश्वर वाद. कल्पना का भी विस्तार बढ़ता जाता है। सब से प्राचीन एकेश्वरवादी याहूदी धर्म में ऐसा माना जाता था कि उनकी जाति के मनुष्य ही अपने ईश्वर की पूजा करने वाले हैं / ऐसा ही विश्वास इस्लाम धर्म में भी था इस लिए इन दोनों में से एक भी धर्म को सर्वांश में एकेश्वरवादी नहीं माना जा सकता / यद्यपि दोनों धर्मों में एक ही ईश्वर को माना जाता है तथापि परधर्मियों को अपने धर्म में लानेका एक का भी उद्देश्य नहीं। लोगों की यह भूल है कि विजयी मुसलमान पराजित प्रजा को मृत्यु दंड देने के बदले मुसलमान धर्म स्वीकार करने का अवसर देते हैं / ठीक बात तो यह है कि मुसलमानों के धर्म युद्ध का उद्देश्य दूसरी राजकीय सत्ताओं को तोड़ गिरा कर अपनी सत्ता स्थित करने का होता है / परधमियों को बदलाकर अपने धर्म में लेना यह उनका मुख्य उद्देश्य नहीं होता / पराजित मनुष्यों को मुसलमान होना कि नहीं इसका आधार उनकी अपनी इच्छापर रहता है। विजय पाने वाले को इसका आग्रह नहीं होता। वह तो उलटा इसको रोकते हैं। प्रत्येक मनुष्य को ईसाई बनाने का प्रयत्न करना यह ईसाई धर्म का खास लक्षण है। ऊपर बताए हुए दो धर्मों से ईसाई धर्म मनुष्य की व्यक्ति को बहुत ही भिन्नस्वरूप में देखते हैं। याहूदी ऐसा मानते हैं कि यहोवाह याहूदियों का ही ईश्वर है और खुद ही उसकी प्रजा है। ऐसा विश्वास होने