________________ तुलनात्मक धर्मविचार. 119 जिन प्रवृत्तियों को अध्यात्मज्ञान में उपयोगी माना गया है उनका विचार करने में ही बौद्धधर्म के तत्व दर्शन का समावेश हुआ है ऐसा हमें मानना पड़ेगा। कार्य कारण क्रम में यह संस्कार और प्रवृत्ति हमें कार्यरूप वैसे ही कारणरूप प्रतीत होती हैं। वह इस जन्म के पूर्व संस्कारों का अथवा पिछले जन्म के संस्कारों का कार्य और भावी प्रवृत्तियों का कारण है प्रत्येक कर्म का फल मिलता ही है / दुनिया की सब . घटनाएं इस नियम को अर्थात् धर्म को सिद्ध करती हैं। इस प्रकार बौद्धधर्म के अध्यात्मज्ञान का आधार संस्कार और धर्म इन दो पर है। परन्तु बौद्धधर्म की मुख्य कल्पना तो वह है जो आत्मा के संबंध में की गई है / इस कल्पना का विचार करने के लिए प्रथम यह समझने की ज़रूरत है कि उस कलाना में ' मैं हूं' अथवा ' मैं' किसी प्रकार से एक सत्य वस्तु है ऐसी प्रतिज्ञा अथवा धनि नहीं रहती। ऊपर निर्दिष्टानुसार अध्यात्मज्ञान में मात्र क्षणिक संस्कारों और प्रवृत्तियों का ही विचार करना रहता है। यदि ऐसा माना जाय कि अहंकार इन संस्कारों और प्रवृत्तियों के ऊपर नीचे अथवा तो उनसे भिन्न है या ऐसा माना जाय कि -- मैं ' यह शब्द इन संस्कारों और प्रवृत्तियों के समुदाय का इकठ्ठा ज्ञान कराने वाला शब्द होने के उपरांत वह किसी विशेष अर्थ की सूचना देता है तो इसके उत्तर में नागसेन का, मिलिन्द के राजा को दिया हुआ