Book Title: Tirthankar Buddha aur Avtar Author(s): Rameshchandra Gupta Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 7
________________ - ६ - प्रयोजन के साथ ही इसके ऐतिहासिक क्रमिक विकास की विवेचना की गई है। पंचम अध्याय तीर्थकर, बुद्ध एवम् अवतार की अवधारणाओं के तुलनात्मक विवेचन के रूप में है। इसमें विस्तार से बताया गया है कि इन सभी अवधारणाओं के विकास का मुख्य लक्ष्य क्या था। साथ ही इस बात की भी विवेचना की गई है कि लगभग समान काल एवं समान वातावरण में विकसित हुई इन प्रमुख अवधारणाओं में पारस्परिक क्या समानताए एवं अन्तर थे। षष्ठ एवम् अन्तिम अध्याय उपसंहार के रूप में हैं । इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन में मैं सर्वप्रथम गुरुद्वय डा० सागरमल जन एवं डा० राम शंकर मिश्र के प्रति श्रद्धावनत हूँ, जिनके सस्नेह मार्गदर्शन एवं आलोक से संबल प्राप्त कर मैं इस कार्य को पूर्ण कर सका। अतः मैं पुनश्च अपने परम श्रद्धेय गुरूद्वय के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करता हूँ। __ मैं अपने विभागीय गुरुजनों प्रो० लक्ष्मी निधि शर्मा, विभागाध्यक्ष, डॉ. एन. एस. एस. रमन, डॉ. रेवती रमण पाण्डेय, डॉ. नम्बूदरी जी, डॉ. बी. एन. सिंह, डॉ. गंगाधर जी एवं अन्य समस्त गुरुजनों के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने समय-समय पर स्नेहपूर्वक मुझे साहस एवं उत्साह प्रदान किया और प्रेरणा देते रहे । दर्शन विभाग के ग्रन्थालयाध्यक्ष, केन्द्रीय ग्रन्थालयाध्यक्ष एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ग्रन्थालयाध्यक्ष तथा अन्यान्य अधिकारियों के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनके सहयोग के कारण विभिन्न पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मैं प्राप्त कर सका। पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार के सर्वश्री डॉ. अरुण प्रताप सिंह, डॉ. रविशंकर मिश्र, श्रीमती कमल प्रभा जैन एवं गुरुपत्नी पूजनीया श्रीमती कमला जैन एवं अन्य समस्त कर्मचारीगणों का अभारी हैं, जिनसे इस कार्य को मूर्तरूप देने में सतत प्रेरणा एवं सहायता प्राप्त होती रही है। मैं डीरे०का० के अधिकारी वर्ग सर्वश्री सत्येन्द्र प्रकाश केला, प्रताप श्रीवास्तव, ईश्वर चन्द्र जायसवाल, बालकृष्ण शर्मा, कुलदीप सिंह, सतीश चन्द्र गुप्त, ए० मिन्ज एवं कालिन्दी प्रसाद श्रीवास्तव के प्रति भी हार्दिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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