Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 6
________________ प्राक्कथन यह तो स्वभावसिद्ध ही है कि सभी प्राणी सूख चाहते हैं। यदि सुख निजस्वरूप है तो उस सुखका स्वरूप क्या है ? उसे पाने का उपाय क्या है ? आदि विचारों पर सतत मन्थन करनेकी प्रथा प्राचीनकालसे ही चली आ रही है। आगे जाकर यही 'आध्यात्मिक चितन" के स्वरूपमें विकसित होकर भारतमें अभी तक जीवन्त है। ऐतिहासिक प्राचीन स्तर ॥ मोहेंजोदारो" के अति पुरातन अवशेषोंमें इतिहासज्ञोंने संशोधनके द्वारा इस "आध्यात्मिक-चितन" को पहिचाना है । प्राचीन ऐतिहासिक अवशेषों-प्रतीकोंमें जो कायोत्सर्ग ( खड्गासन ) की पूर्तियाँ तथा नग्न तपस्वियोंके चित्र पाये जाते हैं, इसका ज्वलन्त साक्षी है । इससे हम " जैन तत्वचितन' की प्राचीनताको भली भांति समझ सकते हैं। तीर्थकर ( जिनेश्वर ) का दिव्योपदेश" द्वादशांगोंमें समाविष्ट था, और वह 'उपदेश " गुरु-शिष्योंकी श्रुतपरम्पराकी धाराके रूपमें बहती आ रही थी । वही श्रुत ( शास्त्र ) धारा महावीर निर्वाण के बाद १६२ वर्षोंतक अविछिन्न रहो। फिर विस्मतिके गत्तोंमें गिरकर क्रमशः लुप्त होती गई । वीर निर्वाण के ६८३ वर्षों बाद महावीरकी दिव्यवाणी सिर्फ आंशिकरूपमे ही रह गई। महावीर की " दिव्यवाणी" के पूर्णरूपसे लुप्त हो जानेका भय उत्पन्न हुआ। इसी भयके कारण श्रुत ( सुना हुआ ) ज्ञान, अक्षरों ( अविनाशी ) में सुरक्षित रख दिया गया, अर्थात् लिपिबद्ध कर दिया गया। आरंभिक दशामें तो जनागम ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषामें ही हुई थी । बादमे लोकप्रियताकी दष्टिसे संस्कृत भाषामे भी उसकी रचनायें होने लगीं। आचार्यों की संस्कृत कृतियोंमे तत्वार्थसूत्रको आद्यता दी जाती है। दिगंबर जैनाम्नायमे ॥ तत्वार्थ सूत्र" तथा श्वेतांबराम्नायमे “तत्वार्थाधिगमसूत्र" के नामसे. सर्वमान्य जैनागमोंमे यह सहान् ग्रंथ "जैन वेदके रूपमे सुप्रसिद्ध हुआ है। इस कृतिपर लिखी गई व्याख्यानोंकी संख्या अन्य किसी जैन शास्त्र को प्राप्त नहीं है। केवल संख्यामे ही नहीं, अर्थगांभीर्यमे भी इस ग्रंथकी समानता दूसरा कोई जैन ग्रंथ अब तक पा नहीं सका है। इसीसे हम समझ सकते हैं कि इस महान् ग्रंथराजका महत्व जैनोंमे कितना गहरा प्रभाव डाल चुका है। इतना ही नहीं उत्तरकालीन सभी जैनाचार्योंकी दष्टिमे भी यह जैनागमोंका महान "आधारस्तंभ" माना गया है। यही इस ग्रंथकी गंभीरता का भी द्योतक है। यह ग्रंथ जो मोक्षमार्गके दर्शनसे लेकर • आत्मायत्त" अनन्तसुख रूपी मोक्ष स्वरूपके निरूपणके साथ पूर्ण होता है, इसीलिए इसे " मोक्षशास्त्र" भी कहते हैं । इसमे दस अध्याय है । षट्खंडागमकी सुप्रसिद्ध 'धवला' टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य' तथा 'विद्यानन्दी' आचार्यों के मतमे 'गद्धपिछाचार्य'. तत्वार्थसूत्र के रचयिता' है। दिगंबर जैन पंथमे उपलब्ध उल्लेखोंमे वीरसेनाचार्यका कथन ही अतीव प्राचीन है। 'उमास्वाति ' 'उमास्वामी' ये दोनों नाम भी दोनों दिगंबर-श्वेतांबर पंथोंमे

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