Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 14
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके सम्यग्दृक्तत्त्वार्थश्रद्धानं तस्याः गोचरो विषयो जीवो निरूपितस्तावदजीवादिवत् तस्य स्वमसाधारणं तत्त्वमौपशमिकादयः पंच भावाः स्युर्न पुनः पारिणामिक एव भावश्चैतन्यमात्रं, यतश्चैतन्यं पुरुषस्य स्वं रूपमिति दर्शनं केषांचिव्यवतिष्ठते । बुध्यादयो नवैवात्मनो विशेषगुणा इति वा, आनंदमात्रं ब्रह्मरूपमिति वा प्रभास्वरमेवेदं चित्तमिति वा प्रमाणाभावात् । प्रमाणोपपन्नास्तु जीवस्यासाधारणाः स्वभावाः पंचौपशमिकादयस्ते सप्तसूत्र्या निरूपिताः सूत्रकारेण लक्षणतः संख्यातः प्रभेदतश्च । सम्यग्दर्शन शङ्खकी निरुक्ति कर देनेसे अभीष्ट अर्थ प्राप्त नहीं होता था । अतः सम्यग्दर्शनका पारिभाषिक अर्थ तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना कहा गया है । उस श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अजीव आदि के समान विषयभूत हो रहा जीवपदार्थ तो पहिले अध्याय में कहा जा चुका है । अब उस जीवके विशेष अंशोंका निरूपण करनेके लिये प्रकरण चलाते हैं । उस जीवके निजआत्मस्वरूप हो रहे औपशमिक आदिक पांचभाव तो स्वकीय असाधारणतत्त्व हैं । जो अन्य अजीव माने गये पुद्गल आदिमें नहीं पाये जाकर केवल जीव में ही पांय जांय वे जीवके असाधारणभाव हो सकेंगे । प्रतिपक्षी कम उपशमसे होनेवाले या कर्मों के क्षयसे होनेवाले अथवा उदय, उपशम, आदिकी नहीं अपेक्षा कर जीवद्रव्य के केवल आत्मलाभसे अनादि सिद्ध हो रहे पारणामिक ये तीन भाव तो जीवके निज स्वरूप हैं ही । साथमें गुण या स्वभावों के प्रतिपक्षी हुये कर्मोंकी सर्वघाति प्रकृतियों का उदयक्षय, और उपशम होनेपर तथा देशघाति प्रकृतियोंके उदय होने पर हो जानेवाले कुज्ञान, मतिज्ञान, चक्षुदर्शन, आदि क्षायोपशमिकभाव तथा कतिपय कर्मोंका उदय होनेपर उपजनेवाले मनुष्यगति, क्रोध, पुंवेद परिणाम, मिथ्यात्व आदिक औदायिकभाव भी आत्माके निज तत्त्व हैं। क्योंकि क्षायोपशमिक और औदायिक भावों का भी उपादान कारण आत्मा ही है । कर्मोके क्षयोपशम या उदयको निमित्त पाकर आत्मा ही मतिज्ञान, क्रोध, आदिरूप परिणत हो जाता है । आत्मा के चेतनागुणकी पर्याय मतिज्ञान, कुमतिज्ञान आदि हैं और आत्मा के चारित्र गुणका विभाव परिणाम क्रोध आदि हैं। केवल निश्चयन द्वारा शुद्ध द्रव्य के प्रतिपादक समयसार आदि ग्रन्थोंमें भले ही मतिज्ञान, क्रोध आदिको परभाव कह दिया गया होय, किन्तु प्रमाणोंद्वारा तत्त्वों की प्रतिपत्ति करानेवाले या अशुद्ध द्रव्यका निरूपण करने वाले श्लोकवार्त्तिक, अष्टसहस्री, गोमसार, राजवार्त्तिक, आदि ग्रन्थोंमें क्रोध, वेद आदिको आत्माका स्व- आत्मक भाव माना गया है। अतः पांचों ही भाव जीवके स्वकीय असाधारण तत्त्व हैं। उन पांचों भावों के साथ तदात्मक हो रहा जीव तत्त्व वास्तविक है । किन्तु फिर केवल परिणामिक भाव अकेले चैतन्य स्वरूप ही जीव नहीं है, जिससे कि केवल चैतन्य ही पुरुषका निज स्वरूप है, ज्ञान, सुख, वीर्य, क्रोध, अवधिज्ञान, उपशम, चारित्र, आदिक भाव तो जीवके निजस्वरूप नहीं है, किंतु त्रिगुणआमक प्रकृति के विवर्त हैं, इस प्रकार किन्हीं किन्हीं साख्योंका माना गया सिद्धान्त व्यवस्थित

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