Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 14
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (14) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ||२|| अर्थ- जो पदार्थ जिस स्वभाव वाला है उसका उसी स्वभाव रूपसे निश्चय होना तत्त्वार्थ' है और तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। विशेषार्थ - 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दो शब्दों के मेल से 'तत्त्वार्थ' शब्द बना है। 'तत्त्व' शब्द भाव सामान्य का वाचक है। अत: जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसका उसी रूप में होना तत्व है; और जिसका निश्चय किया जाता है उसे अर्थ कहते हैं । अतः 'तत्त्व' रूप अर्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं । आशय यह है कि तत्त्व का मतलब है भाव, और अर्थ का मतलब है भाववान् । अतः न केवल भाव का और न केवल भाववान् का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। किन्तु भाव विशिष्ट भाववान् का श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं- सराग सम्यक्दर्शन और वीतराग सम्यक्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सराग सम्यग्दर्शन के सूचक हैं। रागादिक की तीव्रता के न होने को प्रशम कहते हैं। संसार, शरीर और भोगों से भयभीत होने का नाम 'संवेग' है। सब प्राणियों को अपना मित्र समझना अनुकम्पा' है। आगम में जीवादि पदार्थों का जैसा स्वरूप कहा है उसी रूप में उन्हें मानना 'आस्तिक्य' है। सराग सम्यग्दृष्टि में ये चारों बातें पायी जाती हैं तथा आत्मा की विशुद्धि का नाम वीतराग सम्यग्दर्शन है ॥२॥ आगे बतलाते हैं कि सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है तनिसर्गादधिगमादा //३// अर्थ- वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है- स्वभाव से और पर के उपदेश से। जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश से उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। विशेषार्थ- दोनों ही सम्यग्दर्शनों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण तो * ****** **** * तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - एक ही है वह है दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम। उसके होते हुए जो सम्यग्दर्शन बिना दूसरे के उपदेश के स्वयं ही प्रकट हो जाता है उसे निसर्गज कहते हैं, और परोपदेश पूर्वक जो होता है उसे अधिगमज कहते हैं। सारांश यह है कि जैसे पुरानी किवंदन्ती के अनुसार कुरुक्षेत्र में बिना ही प्रयत्न के सोना पड़ा हुआ मिल जाता है वैसे ही किसी दूसरे पुरुष के उपदेश के बिना, स्वयं ही जीवादि तत्वों को जानकर जो श्रद्धान होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है । जैसे सोना निकालने की विधि को जानने वाले मनुष्य के प्रयत्न से खान से निकाला हुआ स्वर्ण पाषाण सोना रूप होता है वैसे ही दूसरे पुरुष के उपदेश की सहायता से जीवादि पदार्थों को जानकर जो श्रद्धान होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है ॥३॥ अब तत्वों को बतलाते हैंजीवाजीवासव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्वम् ।।४।। अर्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । जिसका लक्षण चेतना है वह जीव है। जिनमें चेतना नहीं पायी जाती ऐसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच अजीव हैं। कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। आत्मा और कर्म के प्रदेशों के परस्पर में मिलने को बंध कहते हैं। आस्रव के रुकने को संवर कहते हैं। कर्मों के एक देश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। और समस्त कर्मों का क्षय होने को मोक्ष कहते हैं। शंका - तत्त्व सात ही क्यों हैं ? समाधान - यह मोक्ष शास्त्र है । इसका प्रधान विषय मोक्ष है। अतः मोक्ष को कहा । मोक्ष जीव को होता है । अतः जीव का ग्रहण किया। तथा संसार पूर्वक ही मोक्ष होता है और संसार अजीव के होने पर होता है क्योंकि जीव और अजीव के आपस में बद्ध होने का नाम ही

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