Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 91
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (91) (तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - विशेषार्थ- झूठ और अहितकर उपदेश देना मिथ्योपदेश है । स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में की गयी क्रिया को प्रकट कर देना रहोभ्याख्यान है। किसी का दबाव पड़ने से ऐसी झूठी बात लिख देना, जिससे दूसरा फँस जाये सो कूटलेख क्रिया है। कोई आदमी अपने पास कुछ धरोहर रख जाये और भूल से कम मांगे तो उसको उसकी भूल न बताकर जितनी वह माँगे उतनी ही दे देना न्यासापहार है। चर्चा वार्ता से अथवा मुख की आकृति वगैरह से दूसरे के मन की बात को जान कर लोगों पर इसलिए प्रकट कर देना कि उसकी बदनामी हो सो साकार-मंत्र भेद है । ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।॥२६॥ आगे अचौर्याणुव्रत के अतिचार कहते हैंस्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक मानोन्मान-प्रतिरूपकव्यवहाराः ||२७|| अर्थ- स्तेन प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध-राज्यातिक्रम, हीनाधिकमनोन्मान और प्रतिरूपक-व्यवहार ये पाँच अचौर्याणु व्रत के अतिचार हैं। विशेषार्थ - चोर को चोरी करने की स्वयं प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा करवाना, करता हो तो उसकी सराहना करना, स्तेन प्रयोग है। जिस चोर को चोरी करने की न तो प्रेरणा ही की और न अनुमोदना ही की ऐसे किसी चोर से चोरी का माल खरीदना तदाहृतादान है । राज नियम के विरुद्ध चोरबाजारी वगैरह करना विरुद्ध राज्यातिक्रम है । तोलने के बाँटों को मान कहते है और तराजु को उन्मान कहते हैं । बाट तराजु दो तरह के रखना,कमती से दूसरो को देना और अधिक से स्वयं लेना हीनाधिक मानोन्मान है । जाली सिक्के ढालना अथवा खरी बस्तु में खोटी वस्तु मिलाकर बेचना प्रतिरूपक व्यवहार है। ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं ॥२७॥ (तत्त्वार्थ सूत्र ********** * अध्याय :) क्रम प्राप्त बहाचर्याणुव्रत के अतिचार कहते हैं - परविवाहकरणे त्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानक्रीडा कामतीवाभिनिवेशा: ||२८|| अर्थ - पर विवाह करण, अपरिगृहीत इत्वरीका गमन, परिगृहीत इत्वरिका गमन, अनङ्गक्रीडा और काम तीव्राभिनिवेश, ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं। विशेषार्थ- कन्या के वरण करने को विवाह कहते हैं । दूसरों का विवाह करना पर-विवाह करण है । व्यभिचारिणी स्त्री को इत्वरिका कहते हैं । वह दो प्रकार की होती है - एक जिसका कोई स्वामी नहीं है और दूसरी जिसका कोई स्वामी है। इन दोनों प्रकार की व्यभिचारिणी स्त्रियो के यहाँ जाना, उनसे बातचीत लेन-देन वगैरह करना अपरिगृहीत और परिगृहीत इत्वरिका गमन है। काम सेवन के अंगो को छोडकर अन्य अंगो से रति करना अनङ्गक्रीड़ा है। काम सेवन की अत्यधिक लालसा को काम तीव्राभिनिवेश कहते है। ये पाँच अतिचार ब्रह्मर्याणुव्रत के हैं। परिग्रह परिमाण वत के अतिचार कहते हैं - क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य दासीदास-कुप्य-प्रमाणातिक्रमाः ||१९|| अर्थ- क्षेत्र (खेत), वास्तु (मकान), हिरण्य (चाँदी), सुवर्ण (सोना), धन (गाय बैल),धान्य (अनाज), दासी दास (टहल चाकरी करनेवाले स्त्री पुरुष) और कुष्य (सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्र व वर्तन वगैरह) इन सब के किये हुए परिमाण को लोभ में आकर बढ़ा लेना परिग्रह -परिमाण व्रत के अतिचार हैं। सभी व्रतों के अतिचार छोडने पर ही व्रतों का निर्दोष पालन हो सकता है ॥२९॥ * ***** **4152*22** **********1580 * 22** ***

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