Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 116
________________ D:IVIPULIB001.PM65 (116) तत्त्वार्थ सूत्र * *** ****###अध्याय - इस तरह चार समय में प्रदेशों का विस्तार और चार समय में प्रदेशों का संकोच करने से शेष तीन कर्मों की स्थिति भी आयु के समान अन्तर्मुहुर्त शेष रह जाती है । उस समय वे सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्लध्यान करते हैं। इसके बाद समुच्छिन-क्रिया-निवर्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान करते हैं। इस ध्यान के समय श्वासोच्छवास का संचार,समस्त मनोयोग, वचनयोग, काययोग और समस्त प्रदेशों का हलन चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसीलिए इसे समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति कहते हैं। इसके होने पर समस्त बन्ध और आस्रव रुक जाता है और समस्त बचे हुए कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। अत: मोक्ष के साक्षात् कारण यथाख्यात चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जाते हैं । तब वह अयोग केवली समस्त कर्मों को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर किट्टकालिमा से रहित शद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल आत्म रूप होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। इस तरह दोनों प्रकार का तप नवीन कर्मों के आस्रव को रोकने के कारण संवर का भी कारण है और पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने का कारण होने से निर्जरा का भी कारण है ॥४४॥ आगे बतलाते हैं कि सब सम्यग्दष्टियों के समान निर्जरा नहीं होतीसम्यग्दष्टि-श्रावक-विरतानन्त वियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशम-कोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येय-गुणनिर्जराः ॥४७|| अर्थ- सम्यग्दृष्टि, पंचम गुणस्थान-वर्ती श्रावक, महाव्रती मुनि, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले, दर्शन मोह का क्षय करनेवाले, चारित्र मोह का उपशम करनेवाले, उपशान्तमोह यानी ग्यारहवें गुणस्थान वाले, क्षपक श्रेणी चढ़नेवाले, क्षीण-मोह यानी बारहवें गुणस्थानवाले और जिन भगवान के परिणामों की विशुद्धता अधिक- अधिक होने से तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - प्रति समय क्रम से असंख्यात गुणी, असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। विशेषार्थ- जब मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए तीन करण करता है उस समय उसके आयुकर्म के सिवा शेष सात कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। वह जब सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो उसके पहले से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। वह जब श्रावक हो जाता है तो उसके सम्यग्दृष्टि से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। श्रावक से जब वह सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि हो जाता है तो उसके श्रावक से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। जब वह मुनि होकर अनन्तानुबन्धी कषाय को शेष कषाय रूप परिणमा कर उसका विसंयोजन करता है तो उसके मुनि से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। उसके बाद जब वह दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय करता है तो उसके विसंयोजन काल से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। जब वह उपशम श्रेणी चढता है तो उसके दर्शन मोह क्षपक से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। उसके बाद जब वहसमस्त मोहनीय कर्म का उपशम करके उपशान्त कषाय गुणस्थानवाला हो जाता है तो उसके उपशम अवस्था में भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। वही जीव जब उपशम श्रेणी से गिरने के बाद क्षपक श्रेणी पर चढता है तो उसके ग्यारहवें गुणस्थान से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। वही जब समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके क्षीण कषाय हो जाता है तो उसके क्षपक अवस्था से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। वही जब समस्त घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली हो जाता है तो उसके क्षीण कषाय से भी असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। साराँश यह है कि इन दस स्थानों को प्राप्त होने वाले जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्ध होते हैं अतः इनके कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुनी होती है। इतना ही नहीं जहां उत्तरोत्तर निर्जरा असंख्यात गुनी होती जाती है। वहीं निर्जरा का काल असंख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग घटता जाता है। जैसे, जिन भगवान के निर्जरा का काल सब से कम है उससे संख्यात गना *** 4207D * *** ****208 ** ***

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