Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 117
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (117) (तत्त्वार्थ सूत्र ############## अध्याय -D (तत्त्वार्थ सूत्र **************+अध्याय - काल क्षीण कषाय का है। इस तरह यद्यपि निर्जरा का काल सातिशय मिथ्यादृष्टि तक अधिक अधिक होता है किन्तु सामान्य से प्रत्येक का निर्जरा काल अन्तमुहुर्त ही है। इस उत्तरोत्तर कम कम काल में कर्मों की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती है। अब निर्गन्थो के भेद कहते हैं - पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥४६|| ___ अर्थ-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँचो निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनके उत्तर गुणों की तो भावना भी न हो और मूल गुणों में भी कभी कभी दोष लगा लेते हों उन साधुओं को पुलाक कहते हैं। पुलाक नाम पुवाल सहित चावल का है । पुवाल सहित चावल की तरह मलिन होने से ऐसे साधुको पुलाक कहते हैं । जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए सदा तत्पर हों और जिनके मूल गण निर्दोष हों किन्तु शरीर, पीछी वगैरह उपकरणों से जिन्हें मोह हो उन मुनि को बकुश मुनि कहते हैं। बकुश का अर्थ चितकबरा है। जैसे सफेद पर काले धब्बे होते हैं वैसे ही उन मुनियों के निर्मल आचार में शरीर आदि का मोह धब्बे की तरह होता है । इसीसे वे बकुश कहे जाते हैं । कुशील साधु के दो भेद हैं-प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील। जिनके मूल गुण और उत्तर गुण दोनो ही पूर्ण हों किन्तु कभी-कभी उत्तर गणों में दोष लग जाता हो उन साधुओं को प्रतिसेवना-कुशील कहते हैं । जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को तो वश मे कर लिया है किन्तु संज्वलन कषाय के उदय को वश मे नहीं किया है उन साधुओं को कषाय-कुशील कहते हैं। जिनके मोहनीय कर्म का तो उदय ही नही हैं और शेष घातिकर्मों का उदय भी ऐसा है जैसे जल में लाठी से खींची हुई लकीर । तथा अन्तर्मुहुर्त के बाद ही जिन्हें केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्रकट होने वाला है उन्हें निग्रन्थ कहते हैं। जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं उन केवलियों को स्नातक कहते हैं। ये पाँचों ही सम्यग्द्रष्टि होते हैं और बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी होते हैं। इसलिए चारित्र की हीनाधिकता होने पर भी इन पाँचों को ही निर्ग्रन्थ कहा है ॥४३॥ इन पुलाक आदि मुनियों की और भी विशेषता बतलाते हैं संयम-श्रुव-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिङ्गले श्योपपाद-स्थान विकल्पत: साध्या://४७|| अर्थ- संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान के भेद से पुलाक आदि मुनियों में भेद जानना चाहिये। विशेषार्थ - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील मुनि के सामायिक और छेदोपस्थापना, संयम होता है । कषाय को शीत भूमि के सामायिक छेदों पर परिहार विशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय संयम ही होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही होता है । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील मुनि अधिक से अधिक पूरे दस पूर्वके ज्ञाता होते हैं । कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। और कम से कम पुलाक मुनि आचारांग के ज्ञाता होते हैं, बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ पाँच समिति और तीन गुप्तियों के ज्ञाता होते हैं। स्नातक तो केवलज्ञानी होते हैं अत: उनके श्रुताभ्यास का प्रश्न नहीं है। प्रतिसेवना का मतलब व्रतों में दोष लगाना है। पुलाक मुनि पाँच महाव्रतों में तथा रात्रि भोजन त्यागवत में से किसी एक में परवश होकर कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं । बकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण-बकुश और शरीर बकुश । उपकरण-बकुश मुनि को सुन्दर उपकरणों में आसक्ति रहने से विराधना होती है। और शरीर-बकश मनि की अपने शरीर में आसक्ति होने से विराधना होती है। प्रतिसेवना-कुशील मुनि उत्तर गुणों में कभी कदाचित् दोष लगा लेते हैं। कषाय-कुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के **********4209 * ***** ****

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