Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 123
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (123) (तत्वार्थ सूत्र ************अध्याय-D (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय आध्यात्मिक भजन ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भव में आवै ।टेक।। संशय-विभ्रम-मोह विवजित स्व-पर स्वरुप लखावै। लख परमातम चेतन को पुनि कर्म-कलंक मिटावै ॥१॥ भव-तन-भोग विरक्त होय तन नगन सभेष बनावै। मोह विकार निवार निजातम अनुभव में चित्त लावै ॥२॥ त्रस-थावर वध त्याग सदा परमाद दशा छिटकावै। रागादिक वश झूठ न भाखें तृणहु न अदत्त गहावै ॥३॥ बाहिर नारि त्याग अन्तर चिदब्रह्म सुलीन रहावै। परमाकिंचन धर्म सार सो द्विविध प्रसंग बहावै॥४॥ पञ्च समिति त्रय गुप्ति पाल व्यवहार-चरन मग धावै। निश्चय सकल कषाय-रहित है शुद्धातम थिर थावै॥५॥ कुंकु-पंक दास-रिपु तृण-मणि व्याल-माल सम भावै । आरत रौद्र कुध्यान विडारे धर्म-शुकल को ध्यावै॥६॥ जाके सुखसमाज की महिमा कहत इन्द्र अकुलावै। दौल तास पद होय दास सो अविचल ऋद्धि लहावै॥७॥ आध्यात्मिक भजन खेल ले ऐसी होरी । मिले सुख संपति तोरी ।टेक।। अष्ट कर्म ईंधन संचय में, तप की अग्नि लगाओ। शुक्ल ध्यान की पवन चलाकर, ऊँची ज्वाल बढ़ाओ। हो प्रकाश चहुँ ओरी ॥१॥ निश्चय चरित सुधा सरसा कर, सारी भस्म बहाओ । निज परिणाम थान निर्मल कर, सुषमा सर्व सजाओ। हो प्रसन्न शिव गौरी ॥२॥ साधर्मी जन सांचे परिजन, तिन में प्रीति बढ़ाओ। फेंक प्रमोद गुलाल ज्ञान से, निज पर अंग रंगाओ। नमो जिन शिव रति जोरी ॥३॥ आतम अनुभव भोजन रचकर, खाओ और खिलाओ। नित्यानन्द अमंद मनोहर, सार अमर पद पाओ । रमे चित्त मंगल ओरी ॥ हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम । ज्ञाता दृष्टा आतमराम ।।टेक।। मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहँ राग वितान ॥१॥ मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान । किन्तु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान ॥२॥ सुख दुख दाता कोई न आन, मोह राग रुष दुख की खान । निज को निज पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान ॥३॥ जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम । राग त्यागि पहुँचूँ जिनधाम, आकुलता का फिर क्या काम ॥४॥ होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम । दूर हटो परकृत परिणाम, सहजानन्द रहूँ अभिराम ॥५॥ 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐221座本來坐坐坐坐坐坐坐坐

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