Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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(तत्त्वार्थ सूत्र ++******+******+अध्याय आठों मूल कर्मों का अनुभाग स्वमुख ही होता है। अर्थात् प्रत्येक कर्म अपने रूप मे ही अपना फल देता है, एक मूल कर्म दूसरे मूल कर्म रूप होकर फल नहीं देता । किन्तु आठों मूलकर्मों की जो उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनमें जो प्रकृतियाँ एक जाति की है वे आपस में अदल बदलकर भी फल देती हैं। जैसे, असातावेदनीय सातावेदनीय रूप से भी फल दे सकता है। मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण रूप से उदय मे आता है। इसको परमुख से फल देना कहते हैं । परन्तु कुछ उत्तर प्रकृतियाँ भी ऐसी हैं जो स्वमुख से ही अपना फल देती है । जैसे, दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय, रूप से फल नहीं देता और न चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय रूप से फल देता है। इसी तरह चारों आयु भी अपने रूप ही फल देती हैं, परस्पर में अदल बदल कर फल नहीं देती । अर्थात् किसी ने नरकायु का बन्ध किया हो और उसका फल मनुष्यायु या तिर्यञ्चायु के रूप मे मिले, यह सम्भव नहीं है। उसे नरक में ही जाना होगा ॥ २१ ॥
आगे इसी बात को कहते हैं
स यथानाम ||२२||
अर्थ - कर्म का जैसा नाम है वैसा ही उसका फल है। जैसे, ज्ञानावरण का फल ज्ञान शक्ति को ढाँकना है, दर्शनावरण फल दर्शन शक्ति को ढाँकना है। इसी तरह सभी कर्मों और उनके भेदों का नाम सार्थक है और नाम के अनुसार ही उनका फल भी होता है ॥२२॥
अब यह बतलाते हैं कि जो कर्म उदय में आकर अपना तीव्र या मन्द फल देता है, फल देने के बाद भी वह कर्म आत्मा से चिपटा रहता है या छूट जाता है।
ततश्च निर्जरा ||२३||
अर्थ - फल दे चुकने पर कर्म की निर्जरा हो जाती है, क्योकि स्थिि पूरी हो चुकने पर कर्म आत्मा के साथ एक क्षण भी चिपटा नही रह +++++179+++++++++
तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++++अध्यायजाता। आत्मा से छूटकर वह किसी और रूप से परिणमन कर जाता है । इसीका नाम निर्जरा है।
विशेषार्थ - निर्जरा दो प्रकार की होती है- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । क्रम से उदय काल आने पर कर्म का अपना फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है और जिस कर्म का उदय काल तो नहीं आया, किन्तु तपस्या वगैरह के द्वारा जबरदस्ती से उसे उदय में लाकर जो खिराया जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जैसे आम पेड़ पर लगा लगा जब स्वयं ही पक कर टपक जाता है तो वह सविपाक है और उसे पेड़ से तोड़कर पाल मे दबाकर जो जल्दी पका लिया जाता है वह अविपाक है ॥२३॥
अब प्रदेश बन्ध को कहते हैंनामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्मप्र देशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः || २४ ॥
अर्थ - इस सूत्र में प्रदेश बन्धका स्वरूप बतलाते हुए बँधने वाले कर्म प्रदेशों के बारे में इतनी बातें बतलाई हैं वे कर्म प्रदेश किसके कारण हैं? कब बंधते हैं? कैसे बंधते है ? उनका स्वभाव कैसा है ? बंधने पर वे रहते कहाँ हैं ? और उनका परिमाण कितना होता है ? प्रत्येक प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया है - वे कर्म प्रदेश ज्ञानावरण आदि सभी कर्म प्रकृतियों के कारण हैं । अर्थात जैसे ही वे बंधते हैं वैसे ही आयु को छोडकर शेष सात कर्म रूप हो जाते हैं और यदि उस समय आयु कर्म का भी बन्ध होता है तो आठों कर्म रूप हो जाते हैं। दूसरा प्रश्न है कि कब बन्धते हैं ? उसका उत्तर है कि सब भवों में बंधते हैं। ऐसा कोई भव नहीं, और एक भव में ऐसा कोई क्षण नहीं जब कर्मबन्ध न होता हो ? तीसरा प्रश्न है कि कैसे
बंधते हैं ? उसका उत्तर है- योग विशेष के निमित्त से बंधते हैं। योग का
वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है वही कर्मों के बन्ध मे निमित्त है। चौथा 中国
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