Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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(104)
(तत्त्वार्थ सूत्र
#############अध्याय -D
नवम अध्याय अब बन्ध तत्त्व का वर्णन करने के बाद बन्ध के विनाश के लिए संवर तत्त्व का वर्णन करते हैं। प्रथम ही संवर का लक्षण कहते हैं
आसवनिरोध: संवर: ।।१।। अर्थ- नये कर्मों के आने में जो कारण है उसे आस्रव कहते हैं। आस्रव के रोकने को संवर कहते हैं। संवर के दो भेद हैं- भाव संवर और द्रव्य संवर । जो क्रियाएँ संसार में भटकने में हेतु हैं उन क्रियाओं का अभाव होना भाव संवर है और उन क्रियाओं का अभाव होने पर क्रियाओं के निमित्त से जो कर्म पुद्गलों का आगमन होता था उनका रुकना द्रव्य संवर है ॥१॥
अब संवर के कारण बतलाते हैंस गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परिषहजय-चारित्रैः ||२||
अर्थ- वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह जय और चारित्र से होता है। संसार के कारणों से आत्माकी रक्षा करना गुप्ति है। प्राणियों को कष्ट न पहुँचे इस भावनासे यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करना समिति हैं । जो जीवको उसके इष्ट स्थानमें धरता है वह धर्म है । संसार शरीर वगैरह का स्वरूप बार-बार विचारना अनुप्रेक्षा है । भूख प्यास वगैरह का कष्ट होने पर उस कष्ट को शांति पूर्वक सहन करना परिषहजय है। संसार भ्रमण से बचने के लिए, जिन क्रियाओं से कर्म बन्ध होता है उन क्रियाओं को छोड़ देना चारित्र है।
विशेषार्थ-संवर का प्रकरण होते हुए भी जो इस सूत्र में संवरका ग्रहण करने के लिए 'स' शब्द दिया है वह यह बतलाता है कि संवर गुप्ति वगैरह से ही हो सकता है, किसी दूसरे उपाय से नहीं हो सकता; क्योंकि जो कर्म रागद्वेष या मोहके निमित्तसे बंधता है वह उनको दूर किये बिना 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐183座李李李李李李李李李
(तत्त्वार्थ सूत्र **** ********अध्याय - नहीं रुक सकता ॥२॥ अब संवर का प्रमुख कारण बतलाते हैं
तपसा निर्जरा च ||३|| अर्थ-तप से संवर भी होता है और निर्जरा भी होती है। विशेषार्थ - यद्यपि दस धर्मों में तप आ जाता है फिर भी तप का अलग से ग्रहण यह बतलाने के लिए किया है कि तप से नवीन कर्मों का आना रुकता है और पहले बँधे हुए कमो की निर्जरा भी होती है। तथा तप संवर का प्रधान कारण है । यद्यपि तप को सांसारिक अभ्युदय का भी कारण बतलाया है किन्तु तपका प्रधान फल तो कर्मोका क्षय होना है और गौण फल सांसारिक अभ्युदयकी प्राप्ति है। अतः तप अनेक काम करता है ॥३॥ अब गुप्ति का लक्षण कहते हैं
सम्यग्योग-निग्रहो गुप्ति : ||४|| अर्थ- योग अर्थात् मन वचन और कायकी स्वेच्छा चारिता को रोकना गुप्ति है । लौकिक प्रतिष्ठा अथवा विषय सुख की इच्छा से मनवचन और काय की प्रकृति को रोकना गुप्ति नहीं है यह बतलाने के लिये ही सूत्र में सम्यक पद दिया है। अतः जिससे परिणामों में किसी तरह का संक्लेश पैदा न हो इस रीति से मन, वचन और कायकी स्वेच्छाचारिता को रोकने से उसके निमित्त से होनेवाला कर्मों का आस्त्रव नही होता। उस गुप्ति के तीन भेद हैं-कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ॥४॥
यद्यपि गुप्ति का पालक मुनि मन, वचन और कायकी प्रवृति को रोकता है किन्तु आहार के लिये, विहार के लिये और शौच आदि के लिये उसे प्रवृति अवश्य करनी पडती है।
प्रवृति करते हुए भी जिससे आस्त्रव नही हो ऐसा उपाय बतलाने के लिये समिति को कहते हैं -