Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 106
________________ DRIVIPULIBO01.PM65 (106) (तत्वार्थ सूत्र ************* अध्याय -D क्षमा नहीं है ॥६॥ शंका - सत्य धर्म और भाषा समिति में क्या अन्तर है ? समाधान - संयमी मनुष्य साधुजनों से या असाधुजनों से बातचीत करते समय हित-मित ही बोलता है अन्यथा यदि बहुत बातचीत करे तो राग और अनर्थदण्ड आदि दोषों का भागी होता है। यह भाषा समिति है। किन्तु सत्य धर्म में संयमी जनों को अथवा श्रावकों के ज्ञान चारित्र आदि की शिक्षा देने के उद्देश्य से अधिक बोलना भी बुरा नहीं है। इसके बाद बारह अनुप्रेक्षाओं को कहते हैं - अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यासव-संवर निर्जरा-लोक-बोधिदुलर्भधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा: ||७|| अर्थ-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुलर्भ, धर्मस्वाख्यात इन बारहों के स्वरूप का बारबार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । इन्द्रियों के विषय, धन, यौवन,जीवन, वगैरह जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं ऐसा विचारना अनित्यानुप्रेक्षा है। ऐसा विचारते रहने से इनका वियोग होने पर भी दुःख नहीं होता ॥१॥ इस संसार में कोई शरण नहीं है। पाल पोषकर पुष्ट हुआ शरीर भी कष्ट में साथ नहीं देता, बल्कि उल्टा कष्ट का ही कारण होता है। बन्धु बान्धव भी मृत्यु से नहीं बचा सकते । इस प्रकार का विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है ॥२॥ संसार के स्वभाव का विचार करना संसारानुप्रेक्षा है ॥३॥ संसार में अनादि काल से अकेला ही घूमता रहा हूँ । न कोई मेरा अपना है और न कोई पराया । धर्म ही एक मेरा सहायक है ऐसा विचारना एकत्वानुप्रेक्षा है ॥४॥ शरीर वगैरह से अपने को भिन्न विचारना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ॥५॥ शरीर की अपवित्रता का विचार करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है।६॥आस्रव के दोषों का विचार करना आस्त्रवानुप्रेक्षा तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - है ॥७॥ संवर के गुणों का विचार करना संवरानुप्रेक्षा है ॥८॥ निर्जरा के गुण दोषों का विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है ॥९॥ लोक के आकार वगैरह का विचार करना लोकानुप्रेक्षा है। इसका विचार करने से ज्ञान की विशुद्धि होती है ॥१०॥ ज्ञान की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है अतः ज्ञान को पाकर विषय सुख में नहीं डूबना चाहिये इत्यादि विचारना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है ॥११॥ अर्हन्त भगवान के द्वारा कहा गया धर्म मोक्ष की प्राप्ति का कारण है, इत्यादि विचार करना धर्मानुप्रेक्षा है ॥१२॥ इन बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना करने से मनुष्य उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों को भी अच्छी रीति से पालता है और आगे कही जानेवाली पिरषहों को भी जीतने का उत्साह करता है। इसीसे अनुप्रेक्षाओं को धर्म और परिग्रहों के बीच में रखा है ॥७॥ परिषह क्यों सहना चाहिये ? यह प्रश्न होने पर परिषहों को सहने का उद्देश्य बतलाते हैंमार्गाच्यवन-निर्जरार्थ परिषोढव्या: परीषहाः ||८|| अर्थ-संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए परिषहों को सहना चाहिये । अर्थात जो स्वेच्छा से भूख प्यास वगैरह के परिषह को सहते हैं उनके ऊपर जब कोई उपसर्ग आता है तो कष्ट सहन करने का अभ्यास होने से वे उन उपसर्गों से घबरा कर अपने मार्ग से डिगते नहीं हैं। और इनके सहन करने से कर्मों की निर्जरा भी होती है। अतः विपत्ति के समय मन को स्थिर रखने के लिए परीषहों को सहना ही उचित है ॥८॥ उद्देश्य बतलाकर परीषहों के स्वरूप को कहते हैं - क्षुत्पिपासा - शीतोष्ण -दशंमशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्यानिषद्या-शय्याक्रोश-वध-याचनाऽलाभ-रोग-तृणस्पर्शमल-सत्कार पुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ||९|| 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐牢188 座本本坐坐坐坐坐坐坐坐

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