Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 80
________________ D:IVIPULIBOO1.PM65 (80) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .) अर्थ- दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन इन्हें स्वयं करने से, दूसरों में करने से तथा दोनों में करने से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है। विशेषार्थ - पीड़ा रूप परिणाम को दुःख कहते हैं । अपने किसी उपकारों का वियोग हो जाने पर मन का विकल होना शोक है। लोक में निन्दा वगैरह के होने से तीव्र पश्चाताप का होना ताप है । पश्चाताप के दु:खी होकर रोना धोना आक्रन्दन है। किसी के प्राणों का घात करना वध है । अत्यन्त दुखी होकर ऐसा रुदन करना जिसे सुनकर सुनने वालों के हृदय द्रवित हो जायें परिवेदन है। इस प्रकार के परिणाम जो स्वयं करता है या दूसरों को दुखी करता या रुलाता है अथवा स्वयं भी दुखी होता है और दूसरों को भी दुखों करता है उसके असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है। शंका - यदि स्वयं दुःख उठाने और दूसरो को दुःख में डालने से असातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है, तो तीर्थङ्करों ने केशलोंच, उपवास तथा धूप वगैरह में खड़े होकर तपस्या क्यों की और क्यों दूसरों को वैसा करने का उपदेश दिया? क्योंकि ये सब बातें दुःख देनेवाली हैं। समाधान - क्रोध आदि कषाय के आवेश में आकर जो दुःख स्वयं उठाया जाता है अथवा दूसरों को दिया जाता है उससे असाता वेदनीय कर्मका आस्रव होता है। जैसे एक दयाल डाक्टर किसी रोगी का फोड़ा चीरता है। फोड़ा चीरने से रोगी को बड़ा कष्ट होता है फिर भी डाक्टर को उससे पाप बन्ध नहीं होता; क्योंकि उसका प्रयत्न तो रोगी का कष्ट दूर करने के लिए ही है। इसी तरह तीर्थङ्कर भी संसार के दुखों से त्रस्त जीवों के कल्याण की भावना से ही उन्हें मुक्तिका मार्ग बतलाते हैं । अतः उन्हें असाता का आस्रव नहीं होता ॥११॥ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - सातावेदनीय कर्म के आसव के कारण कहते हैंभूत-व्रत्यनुकम्पा-दान-सरागसंयमादियोग: क्षान्तिः शौचमिति सद्धेद्यस्य ||११| अर्थ- प्राणियों पर और व्रती परुषों पर दया करना यानी उनकी पीडाको अपनी पीड़ा समझना, दूसरों के कल्याणकी भावना से दान देना, राग सहित संयमका पालना, आदि शब्द से संयमासंयम, (एक देश संयम का पालना); अकाम निर्जरा (अपनी इच्छा न होते हुए भी परवश होकर जो कष्ट उठाना पड़े उसे शान्ति के साथ सहन करना), बालतप (आत्म ज्ञान रहित तपस्या करना), इनको मनोयोग पूर्वक करना, क्षान्ति (क्षमा भाव रखना), शौच (सब प्रकार के लोभको छोड़ना) इस प्रकारके कार्यों से सातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि यद्यपि प्राणियों में व्रती भी आ जाते हैं फिर भी जो व्रतियों का अलग ग्रहण किया है सो उनकी और विशेष लक्ष्य दिलाने के उद्देश्य से किया है ॥१२॥ आगे दर्शन मोहनीय कर्मके आसव के कारण कहते हैंकेवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ||१३|| अर्थ- केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवों को झूठा दोष लगाने से दर्शनमोह का आस्रव होता है। विशेषार्थ-जिनका ज्ञान पूरा प्रकट होता है उन अर्हन्त भगवान को केवली कहते हैं । अर्हन्त भगवान भूख-प्यास आदि दोषों से रहित होते हैं। अत: यह कहना कि वे हम लोगों की तरह ही ग्रासाहार करते हैं और उन्हें भूख प्यासकी बाधा सताती है तो यह उनको झूठा दोष लगाना है। उन केवली के द्वारा जो उपदेश दिया जाता है उसे याद रखकर गणधर जो ग्रन्थ रचते हैं उन्हें श्रुत कहते हैं। उस श्रुत में मांस भक्षणका विधान है ऐसा ******* **41350 **######

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