Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 82
________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (82) (तत्वार्थ सूत्र ********* **** अध्याय - अर्थ-सम्यक्त्व भी देवायु के आस्रव का कारण है। यहाँ यद्यपि यह नहीं कहा है कि सम्यक्त्व अमुक देवाय का कारण है फिर भी अलग सूत्र बनाने से यह अर्थ निकलता है कि सम्यक्त्व से वैमानिक देवों की आय का आस्रव होता है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर भवन-त्रिक में जन्म नहीं लेता। शंका - तो क्या सरागसंयम आदि सूत्र में जो देवायु के आस्रव के कारण बतलाये हैं वे सब प्रकार की देवाय के आस्त्रव के कारण हैं? यदि ऐसा है तब तो सरागसंयम और संयमासंयम भी भवनवासी, आदि देवोंकी आयुके कारण हुए? समाधान - नहीं हुए, क्योंकि बिना सम्यक्त्वके सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते । अतः जब सम्यक्त्व वैमानिक देवाय का कारण है तो वे दोनों भी उसी के कारण हुए ॥२१॥ इसके बाद नाम कर्म के आसव के कारण बतलाते हुए पहले अशुभ नाम कर्म के आसव के कारण बतलाते हैंयोगवक्रता-विसंवादनञ्चाशुभस्य नाम्न:।।२।। अर्थ-मन-वचन और कायकी कुटिलता से तथा किसी को धर्मके मार्गसे छुड़ा कर अधर्म के मार्ग में लगाने से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है। शंका - योगवक्रता और विसंवादन में क्या अंतर है? समाधान - जो मनुष्य किसीको धोखा देता है उसमें तो योगवक्रता होती है तभी तो वह दूसरे को धोखा देता है और दूसरे को धोखा देना विसंवादन है। अर्थात् दोनों में एक कारण है, दूसरा कार्य है ॥२२॥ शुभ नामकर्म के आसव के कारण बतलाते हैं तद्धिपरीतं शुभस्य ।।१३।। अर्थ- जो अशुभ नाम कर्मके आस्रवके कारण कहे हैं उनसे उल्टे तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - शुभ नामकर्मके आस्त्रव के कारण हैं । अर्थात् मन-वचन और कायकी सरलतासे और किसी को धोखा न देने से शभ नामकर्मका आस्रव होता है ॥२३॥ नाम कर्मके भेदों में एक तीर्थङ्कर नाम कर्म है उसका आस्रव कुछ विशेष कारणों से होता है। अतः उसे अलगसे बतलाते हैंदर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचा रोडभीक्ष्णज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधि-वैयावृत्यकरण-मर्हदाचार्य-बहुश्रुतप्रवचन भक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य।।२४|| अर्थ-दर्शन विशुद्धि (भगवान् अर्हन्त देवके द्वारा कहे गये निर्ग्रन्थता रूप मोक्ष मार्ग में आठ अंग सहित रुचिका होना), विनय सम्पन्नता (मोक्ष के साधन सम्यग्ज्ञान वगैरहका और सम्यग्ज्ञान के साधन गुरु वगैरहका आदर सत्कार करना), शीलव्रतेषु-अनतिचार (अहिंसा आदि व्रतों का और व्रतों का पालन करने के लिए बतलाये गये शीलों का अतिचार रहित पालन करना), अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (सदा सम्यग्ज्ञान के पठन-पाठनमें लगे रहना), संवेग (संसार के दुःखों से सदा उद्विग्न रहना) शक्तितःत्याग (शक्ति के अनुसार विधि पूर्वक दान देना), शक्तितःतप (अपनी शक्तिके अनुसार जैन मार्गके अनुकूल तपस्या करना), साधु समाधि (तपस्वी मुनिके तपमें किसी कारण से कोई विघ्न आ कर ना जाये तो उसे दूर करके उनके संयम की रक्षा करना, वैयावृत्यकरण (गुणवान् साधुजनों पर विपत्ति आने पर निर्दोष विधि से उसको दूर करना), अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति प्रवचन भक्ति। (अर्हन्त देव आचार्य उपाध्याय और आगमके विषयमें विशुद्ध भाव पूर्वक अनुराग होना), आवश्यकापरिहाणि (सामायिक, स्तवन,

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