Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 88
________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (88) (तत्वार्थ सूत्र ************अध्याय-D नि:शल्यो व्रती ।।१८।। अर्थ- जो शल्य रहित हो उसे व्रती कहते हैं। विशेषार्थ - शरीर में घुसकर तकलीफ देनेवाले कील कांटे आदि को शल्य कहते हैं। जैसे कील कांटा कष्ट देता है वैसे ही कर्म के उदय से होनेवाला विचार भी जीव को कष्टदायक है, इसलिए उसे शल्य नाम दिया गया है। वे शल्य तीन हैं- माया, मिथ्यात्व और निदान । मायाचार या धूर्तता को माया कहते हैं । मिथ्या तत्वों का श्रद्धान करना कुदेवों को पूजना मिथ्यात्व है। विषयभोग की चाह को निदान कहते हैं । जो इन तीनों शल्यों को हृदय से निकाल कर व्रतों का पालन करता है वही व्रती है। किन्तु जो दुनिया को ठगने के लिए व्रत लेता है, या व्रत ले कर यह सोचता रहता है कि व्रत धारण करने से मुझे भोगने के लिए अच्छी अच्छी देवांगनाएँ मिलेंगी, या जो व्रत लेकर भी मिथ्यात्व में पड़ा है वह कभी भी व्रती नही हो सकता ॥१८॥ आगे व्रतों के भेद बतलाते हैं अगार्यनगारश्च ||१९|| अर्थ-व्रती के दो भेद हैं - एक अगारी यानी गृहस्थ श्रावक और दूसरा अनगारी यानी गृह त्यागी साधु । शंका - एक साधु किसी देवालय में या खाली पड़े घर में आकर ठहर गये तो वे अगारी हो जायेंगे। क्या एक गृहस्थ अपनी स्त्री से झगड़ कर जंगल में जा बसा तो वह अनगारी कहलायेगा? समाधान - अगार यद्यपि मकान को कहते हैं किन्तु यहाँ बाहरी मकान न लेकर मानसिक मकान लेना चाहिये । अतः जिस मनुष्य के मन में घर बसा कर रहने की भावना है वह भले ही जंगल मे चला जाये, अगारी ही कहा जायेगा । और जिसके मनमे वैसी भावना नहीं है वह कुछ समय के लिये किसी मकान में ठहरने पर भी अगारी नही कहा जायेगा ॥१९॥ 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐本151座本來坐坐坐坐坐坐坐坐 तत्त्वार्थ सूत्र **************अध्याय - क्रमश: अगारी व्रती का स्वरूप बतलाते हैं - अणुव्रतोऽगारी ||२०|| अर्थ- जो पाँचो पापों का एक देश से त्याग करता है उस अणुव्रती को अगारी कहते हैं । अर्थात त्रस जीवों की हिंसा करने का त्याग करना प्रथम अणुव्रत है। राग, द्वेष अथवा मोह के वशीभूत होकर ऐसा वचन न बोलना जिससे किसी का घर बरबाद हो जाये या गांव पर मुसीबत आ जाये, दूसरा अणुव्रत है । जिससे दूसरे को कष्ट पहुँचे अथवा जिसमें राजदण्ड का भय हो ऐसी बिना दी हुई वस्तु को न लेने का त्याग तीसरा अणुव्रत है। विवाहित या अविवाहित पर स्त्री के साथ भोग का त्याग चौथा अणुव्रत है। धन, धान्य, जमीन जायदाद वगैरह का आवश्कयता के अनुसार एक प्रमाण निश्चित कर लेना पाँचवा अणव्रत है। जो इन पाँचों अणुव्रतों को भी नियम पूर्वक पालता है वही अगारी व्रती है ॥२०॥ अगारी व्रती के जो और व्रत हैं उन्हे कहते हैं - दिग्देशानर्थण्डविरति-सामायिक-प्रोषधोपवासोपभोग परिभोगपरिमाणा तिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।।११।। अर्थ- दिग्विरति, देशविरति, अनर्थ-दण्ड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण और अतिथि-संविभाग इन सात व्रतों से सहित गृहस्थ अणुव्रती होता है। विशेषार्थ- पूर्व आदि दिशाओं में नदी ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बांध कर जीवन पर्यन्त उससे बाहर न जाना और उसीके भीतर लेन देन करना दिग्विरति व्रत है। इस व्रत के पालने से गृहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता । इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह महाव्रती सा हो जाता है। तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रभूत लाभ होने पर भी व्यापार नहीं करता है अतः लोभ की भी कमी होती है। दिग्विरति व्रत की मर्यादा के भीतर कुछ समय के

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