Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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(तत्वार्थ सूत्र ********* **** अध्याय - वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक कर्मो में कभी हानि न आने देना और प्रतिदिन नियत समय पर उन्हें बराबर करना) मार्ग प्रभावना (सम्यग्ज्ञान के द्वारा, तपके द्वारा या जिनपूजा के द्वारा जगत में जैनधर्मका प्रकाश फैलाना), प्रवचन वत्सलत्व (जैसे गौ को अपने बच्चे से सहज स्नेह होता है वैसे ही साधर्मी जन को देखकर चित्त का प्रफुल्लित हो जाना) ये सोलह भावनाएं तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रव में कारण हैं। इन सबका अथवा इनमें से कुछ का पालन करने से तीर्थंकर नाम कर्म का आस्रव होता है किन्तु उनमें एक दर्शनविशुद्धि का होना आवश्यक है ॥२४॥
नीच गोत्र के आसव के कारण कहते हैंपरात्मनिन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्मावने
च नीचैर्गोत्रस्य ||२७|| अर्थ- दूसरों की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के मौजूदा गुणों को भी ढांकना और अपने में गुण नहीं होते हुए भी उनको प्रकट करना, ऐसे भावों से नीच गोत्र का आस्रव होता है ॥२५॥ इसके बाद उच्च गोत्र के आसव के कारण कहते हैंतद्धिपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ||१६||
अर्थ-नीच गोत्र के आस्रव के कारणों से विपरीत कारणों से तथा नीचैर्वृत्ति और अनुत्सेक से उच्चगोत्र का आस्रव होता है। अर्थात् दूसरों की प्रशंसा करना, अपनी निन्दा करना, दूसरों के अच्छे गुणों को प्रगट करना, और असमीचीन गुणों को ढांकना किन्तु अपने समीचीन गुणों को भी प्रकट न करना, गुणी जनों के सामने विनय से नम्र रहना और उत्कृष्ट ज्ञानी तपस्वी होते हुए भी घमंड का न होना, ये सब उच्च गोत्र के आस्रव के कारण हैं ॥२६॥
(तत्त्वार्थ सूत्र * **** ******अध्याय - क्रम प्राप्त अन्तराय कर्म के आसव के कारण कहते हैं
विघ्नकरणमन्तरायस्य ||२७|| अर्थ- दान, लाभ भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का आस्त्रव होता है। अर्थात् दान देने में विघ्न करने से दानान्तराय कर्म का आस्रव होता है। किसी के लाभ में बाधा डालने से लाभान्तराय कर्म का आस्रव होता है । इसी तरह शेष में भी जानना चाहिये।
शंका -आगम में कहा है कि जीव के आयु कर्म के सिवा शेष सात कर्मों का आस्रव सदा होता रहता है। तब प्रदोष आदि करने से ज्ञानावरण आदि कर्म का ही आस्रव कैसे हो सकता है?
समाधान - यद्यपि प्रदोष आदि से ज्ञानावरण आदि सभी कर्मों का प्रदेश बन्ध होता है। अर्थात् प्रदेश आदि से एक समय में जिस समय प्रबद्ध का आस्रव होता है उसके परमाणु आयु के सिवा शेष सातों कर्मों में बँट जाते हैं, तथापि यह कथत अनुभाग की अपेक्षा से है। अर्थात् प्रदोष आदि करने से ज्ञानावरण कर्म में फल देने की शक्ति अधिक पड़ती है दुःख देने से असाता वेदनीय कर्म में फल देने की शक्ति अधिक पड़ती है। वैसे बंध सातों ही कर्मों का होता है।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे षष्ठोऽध्यायः।।६।।
क्रोध संताप पैदा करता है, विनय और धर्म का नाश करता है, मित्रता का अंत करता है और उद्वेग पैदा करता है । यह नीच वचन कहलाता है, क्लेश कराता है, कीर्ति का नाश तथा दुर्गति उत्पन्न करता है। यह पुण्य का नाश करता है और मानव को कुगति देता है। ऐसे अनेक दोष इस क्रोध से उत्पन्न होते हैं। क्रोध से हानि प्रत्यक्ष है पर लाभ एक भी नहीं । महात्मा कहते हैं कि क्रोध त्याग से मोक्ष भी सुलभ है।
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