Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 27
________________ DEVIPULIBOO1.PM65 (27) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय द्वितीय अध्याय - अब सम्यग्दर्शन के विषयरूप से कहे गये सात तत्त्वों में से जीव तत्त्व का वर्णन करते हैं औपशमिक-क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौ च ||१|| अर्थ- औपशमिक, क्षायिक, मिश्र औदयिक व परिणामिक ये जीव के पाँच भाव हैं। जैसे मैले पानी में निर्मली मिला देने से मैल नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है। वैसे ही कारण के मिलने पर प्रतिपक्षी कर्म की शक्ति के दब जाने से आत्मा में निर्मलता का होना औपशमिक भाव है। ऊपर वाले दृष्टान्त में उस स्वच्छ जल को, जिसके नीचे मैल बैठ गया है, किसी साफ वर्तन में निकाल लेने पर उसके नीचे का मैल दूर हो जाता है और केवल निर्मल जल रहा जाता है। वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म का बिलकुल अभाव होने से आत्मा में जो निर्मलता होती है वह क्षायिक भाव है। जैसे, उसी पानी को दूसरे बर्तन में निकालते समय कुछ मैल यदि साथ में चला आये और आकर जल के नीचे बैठ जाय तो उस समय जल की जैसी स्थिति होती है वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और आगे उदय में आनेवाले निषेकों का सत्ता में उपशम होने से तथा देशघाती स्पर्द्धको का उदय होते हुए जो भाव होता है उसे क्षयोपशमिक भाव कहते हैं। उसीका नाम मिश्र भाव है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्मका फल देना उदय है और उदय से जो भाव होता है उसे औदयिक भाव कहते हैं । जो भाव कर्मकी अपेक्षाके बिना स्वभाव से ही होता है वह पारिणामिक भाव है। इस तरह ये जीवके पाँच भाव होते हैं ॥१॥ तत्त्वार्थ सूत्र **** ***** **अध्याय - अब इन भावों के भेद कहते हैंद्वि-नवा-ष्टादशै-कविंशति-त्रिभेदा यथाक्रमम् ||शा अर्थ-औपशमिक भाव के दो भेद हैं । क्षायिक भाव के नौ भेद हैं । मिश्र भाव के अट्ठारह भेद हैं । औदयिक भावके इक्कीस भेद हैं और पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं। अब औपशमिक भाव के दो भेद कहते हैं सम्यक्त्व-चारित्रे ||३|| अर्थ- औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के भेद हैं । अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। तथा समस्त मोहनीय कर्मके उपशम से औपशमिक चारित्र होता है। विशेषार्थ - उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं- प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे छूटने पर जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं और उपशम श्रेणी चढते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । प्रथमोशम सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में पाँच लब्धियाँ होती हैं-क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि. देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करणलब्धि । इनमें से प्रारम्भ की चार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों के हो जाती हैं किन्तु करण लब्धि भव्य के ही होती है तथा जब सम्यक्त्व होना होता है तभी होती है। जब अशुभ कर्म प्रति समय अनन्त गुनी कम-कम शक्ति को लिये हुए उदय में आते हैं अर्थात् पहले समय में जितना फल दिया, दूसरे समय में उससे अनन्त गुना कम, तीसरे समय में उससे अनन्त गुना कम, इस तरह * *** *** *** * *** * *** **

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