Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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D:IVIPUL\BO01.PM65
(38)
(तत्वार्थ सूत्र
अध्याय)
(तत्वार्थ सूत्र
अध्याय :D
पर भी आगे के शरीर स्थूल नहीं हैं । बल्कि बन्धन के ठोस होने से उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। जैसे रूई का ढेर और लोहे का पिण्ड ॥३८॥ आगे तैजस और कार्मण शरीर के प्रदेश बतलाते हैं
अनन्तगुणे परे ॥३९॥ अर्थ-आहारक शरीर से तैजस में अनन्त गुने परमाणु होते हैं और तैजस से कार्मण मे अनन्त गुने परमाणु होते हैं ॥ ३९ ॥
शंका - यदि तैजस और कार्मण शरीर में इतने परमाणु होते हैं तो इन दोनों शरीरों के साथ होने से संसारी जीव अपने इच्छित प्रदेश को गमन कर नहीं सकेगा। इस आशंका को दूर करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
अप्रतिघाते ||४|| अर्थ- तैजस और कार्मण शरीर अप्रतिघाती है। अर्थात् जैसे अग्नि लोहे के पिण्ड मे घुस जाती है वैसे ही ये दोनों शरीर भी वज्रमय पटल से भी नहीं रूकते हैं।
शंका - वैक्रियिक और आहारक शरीर भी सूक्ष्म होने के कारण किसी से रुकते नहीं हैं, फिर इनको अप्रतिघाती क्यों नहीं कहा?
समाधान - यहां उन्हीं को अप्रतिघाती कहा है जो समस्त लोक में कहीं भी नही रुकते । वैक्रियिक और आहारक समस्त लोकमे अप्रतिघाती नहीं हैं। क्योंकि आहारक शरीर तो अढ़ाईद्वीप तक ही जा सकता है, और मनुष्यों को ऋद्धि द्वारा प्राप्त हुआ वैक्रियिक भी मनुष्य लोक तक ही जा सकता है । तथा देवों का वैक्रियिक शरीर त्रस नाली के भीतर ही ऊपर सोलहवें स्वर्ग तक और नीचे तीसरे नरक तक जा सकता है। अतः समस्त लोक में अप्रतिघाती तो तैजस और कार्मण ही हैं।
इन दो शरीरो के विषय में और भी विशेष कहते हैं
अनादिसम्बन्धे च ।।४१| अर्थ- यहाँ च शब्द विकल्पार्थक है । अत: आत्मा से तैजस और कार्मण का सम्बन्ध अनादि भी है और सादि भी है। कार्य कारण रूप बन्ध की परम्परा की अपेक्षा तो अनादि सम्बन्ध है।अर्थात् जैसे औदारिक, वैक्रियिक, और आहारक शरीर का सम्बन्ध अनित्य है, कभी कोई शरीर होता है और कभी नहीं होता। ऐसी बात तैजस और कार्मण में नहीं है। ये दोनों शरीर तो सब अवस्थाओं में संसारी जीव के साथ सदा ही रहते हैं । अतः अनादि हैं । तथा पहले के बंधे तैजस और कार्मण की प्रति समय निर्जरा होती रहती है और नवीन का बन्ध होता रहता है। इस अपेक्षा से सादि हैं।
विशेषार्थ - जो लोक शरीर का आत्मा के साथ सम्बन्ध सर्वथा सादि या सर्वथा अनादि ही मानते हैं उनके मत में अनेक दोष आते हैं। यदि आत्मा से शरीर का सम्बन्ध सादि ही माना जाये तो शरीर का समबन्ध होने से पहले आत्मा अत्यंत शुद्ध ठहरी । ऐसी अवस्था मे सर्वथा शुद्ध आत्मा के साथ शरीर के समबन्ध बिना निमित्त कैसे हो सकता है? यदि शुद्ध आत्मा के भी बिना निमित्त के शरीर का सम्बन्ध हो सकता है तो मुक्त जीवों के भी फिर से शरीर समबन्ध होने का प्रसंग आ जायेगा। तब तो मुक्तात्मा का ही अभाव हो जायेगा। यदि आत्मा और शरीर का सम्बन्ध एकान्त से अनादि ही माना जायेगा तो जो सर्वथा अनादि होता है उसका अन्त नहीं होता । अत: जीव की कभी भी मुक्ति नहीं होगी। इसलिए शरीर का सम्बन्ध कदाचित् सादि और कदाचित् अनादि ही मानना उचित है ॥ ४१ ॥
प्रश्न - ये दोनों शरीर किसी किसी जीव के होते हैं अथवा सब जीवों के होते हैं?
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