Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 40
________________ D:\VIPUL\BOO1. PM65 (40) तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय तैजसमपि ॥४८॥ अर्थ - तैजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय होता है। विशेषार्थ तैजस शरीर दो प्रकार का होता है- एक शरीर से निकल कर बाहर जानेवाला और दूसरा शरीर में ही रह कर उसको कान्ति देने वाला, जो सब संसारी जीवों के पाया जाता है। निकलने वाला तैजस शुभ भी होता है और अशुभ भी। किसी क्षेत्र के लोगों को रोग, दुर्भिक्ष वगैरह से पीड़ित देखकर यदि तपस्वी मुनि के हृदय में अत्यन्त करुणा उत्पन्न हो जाय तो दाहिने कन्धे से शुभ तैजस निकल कर बारह योजन क्षेत्र के मनुष्यों का दुःख दूर कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ठ हो जाता है। और यदि तपस्वी मुनि किसी क्षेत्र के मनुष्यों पर अत्यन्त कुद्ध हो जाते हैं। तो उनके तप के प्रभाव से बाएं कन्धे से सिन्दूर के समान लाल अशुभ तैजस निकलता है और उस क्षेत्र में जाकर बारह योजन के भीतर के जीवों जलाकर राख कर देता है। पश्चात मुनि को भी जला डालता है ॥ ४८ ॥ आगे आहारक शरीर का स्वरूप कहते हैं शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ||४९|| अर्थ - आहारक शरीर शुभ है, विशुद्ध है, व्याघात रहित है और प्रमत्त संयत मुनि के ही होता है । विशेषार्थ - आहारक शरीर का रंग सफेद, और ऊँचाई एक हाथ होती है। समचतुरस्त्र संस्थान होता है, धातु उपधातु से रहित होता है। न किसी से रुकता है और न किसी को रोकता है। प्रमत्त-संयत मुनि के मस्तक से उत्पन्न होता है । कभी तो ऋद्धि का सद्भाव जानने के लिए आहारक शरीर की रचना होती है। कभी सूक्ष्म पदार्थ का निर्णय करने के लिए । सो मुनि मस्तक से निकल कर वह केवली भगवान के पास जाता है और सूक्ष्म पदार्थ का निर्णय करके अर्न्तमुहूत में लौट कर मुनि के शरीर में ही प्रवेश कर जाता है, तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से भी निकलता है ॥ ४९ ॥ ****++++++55 +++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++अध्याय इस तरह चौदह सूत्रों द्वारा पाँच शरीरों का कथन किया। अब सूत्रकार लिंग का कथन करते हैं नारक- सम्मूर्छिनो नपुंसकानि ||५०|| अर्थ - नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक लिंग वाले ही होते हैं ॥ ५० ॥ न देवाः ||१|| अर्थ - देव नपुंसक लिंग वाले नहीं होते । देवगति में पुरुष वेद और स्त्री वेद, दो ही वेद होते हैं ॥ ५१ ॥ शेषास्त्रिवेदाः ।।७२|| अर्थ - नारकी, देव तथा सम्मूर्छन जीवों के सिवा शेष जीव अर्थात् गर्भज, तिर्यंच और मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं। इतना विशेष है भोगभूमि तथा म्लेच्छ-खण्ड के मनुष्यों में स्त्री-पुरुष वेद ही होते हैं॥५२॥ अब आगे यह बतलाते हैं कि कौन कौन जीव पूरी आयु भोग कर ही मरण करते हैंऔपपादिक-चरमोत्तमदे हाऽसंख्ये यवर्षायुषो ऽनपवर्त्यायुषः ।। ७३ ।। अर्थ - औपपादिक अर्थात् देव नारकी, चरमोत्तम - देह अर्थात् उसी भव से मोक्ष जानेवाले और असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमिया जीव पूरी आयु भोग कर ही शरीर छोड़ते हैं- विष, शस्त्र, वगैरह से इनकी आयु नहीं छिदती । इसके सिवा शेष जीवों की आयु का कोई नियम नहीं है । विशेषार्थ - कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों की भुज्यमान आयु की उदीरणा होती है । उदीरणा के होने से आयु की स्थिति जल्दी पूरी होकर अकाल में ही मरण हो जाता है। जैसे आम वगैरह को पाल देकर समय से पहले ही पका लिया जाता है। एक उदाहरण के द्वारा इसे स्पष्ट ****** ++ ***

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