Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 42
________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (42) तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। उसके नीचे कुछ कम राजु अन्तर देकर चौथी पृथ्वी चौबीस हजार योजन मोटी है। इसी तरह नीचे नीचे कुछ कम एक राजु का अन्तर देकर बीस हजार योजन मोटी पाँचवी पृथ्वी और सोलह हजार योजन मोटी छठी पृथ्वी है। फिर कुछ कम एक राजु का अन्तर देकर आठ हजार योजन मोटी सातवीं पृथ्वी है । सातवीं पृथ्वी से एक राजु नीचे लोक का अन्त है। इन सातों पृथ्वियों की लम्बाई चौड़ाई लोक के अन्त तक है। जिस पृथ्वी का जैसा नाम है वैसी ही उसमें प्रभा है॥१॥ तासु त्रिंशत्-पंचविंशति-पञ्चदश-दश-त्रि-पंचोनैकनरक-शतसहस्त्राणि- पञ्च चैव यथाक्रमम् ||२|| अर्थ- उन रत्नप्रभा आदि भूमियों में नरकों की संख्या इस प्रकार हैपहली पृथ्वी के अब्बहुल भाग में तीस लाख, दूसरी पृथ्वी मे पच्चीस लाख, तीसरी पृथ्वी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवी मे तीन लाख, छठ्ठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में पाँच नरक अर्थात् बिल हैं। विशेषार्थ - जैसे पृथ्वी में गड्ढे होते हैं। वैसे ही नारकियों के बिल होते हैं। कछ बिल संख्यात योजन लम्बे चौडे हैं और कछ असंख्यात योजन लंबे चौड़े हैं। पहले नरक की पृथ्वी में तेरह पटल हैं और नीचेनीचे प्रत्येक पृथ्वी में दो-दो पटल कम होते गये हैं । अर्थात् दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात, पाँचवी में पाँच, छठ्ठी में तीन और सातवीं में एक ही पटल है। इस तरह कुल पृथ्वियों में उनचास पटल हैं जो नीचे-नीचे हैं। इन पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इस तरह तीन प्रकार के बिल होते हैं । प्रत्येक पटल के बीच में जो बिल हैं उसे इन्द्रक बिल कहते हैं । उस इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में जो पंक्तिवार बिल हैं वे श्रेणीबद्ध कहे जाते हैं। और दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में बिना क्रम के जो बिल हैं उन्हें प्रकीर्णक तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - कहते हैं । प्रथम पटल की चारों दिशाओं मे उनचास-उन्चास और विदिशाओं में अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं। आगे; नीचेनीचे प्रत्येक पटल की चारों दिशाओं में एक-एक बिल घटता जाता है। इस तरह प्रत्येक पटल में आठ-आठ बिल घटते जाते हैं । घटते-घटते सातवें नरक के पटल में, जो कि उन्चासवां पटल है, केवल दिशाओं में ही एक एक बिल है, विदिशाओं में बिल नहीं हैं; अतः वहाँ केवल पाँच ही बिल हैं । सातों नरकों में कुल बिल चौरासी लाख हैं । जिनमें उनचास इन्द्रक बिल और दो हजार छह सौ चार श्रेणीबद्ध बिल हैं। शेष तेरासी लाख नब्बे हजार तीन सौ सैंतालीस प्रकीर्णक बिल हैं। उनचास इन्द्रक बिलों में से प्रथम नरक का पहला इन्द्रक पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाला है जो अढ़ाई द्वीप के बराबर है और उसीके ठीक नीचे है। नीचे क्रम से घटते-घटते सातवें नरक का इन्द्रक एक लाख योजन विस्तार वाला है । सभी इन्द्रक संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, सभी श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और प्रकीर्णकों में से कुछ संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। अब नारकियों का वर्णन करते हैंनारका नित्याशुभतर-लेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रियाः ||३|| अर्थ- नारकी जीवों के सदा अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देह, अशुभतर वेदना और अशुभतर विक्रिया होती है। विशेषार्थ- पहली और दूसरी पृथ्वी के नारकियों के कापोत लेश्या होती है, तीसरी में ऊपर के बिलों में कापोत और नीचे के बिलों में नील लेश्या होती है। चौथी में नील लेश्या ही है। पाँचवी में ऊपर के बिलों में नील और नीचे के बिलों में कृष्ण लेश्या होती है। छठ्ठी में कृष्ण लेश्या ही है और सातवीं में परम कृष्ण ही है। इस तरह नीचे-नीचे अधिक अधिक अशुभ लेश्या होती हैं। उनका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों का

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