Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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D: IVIPUL\BO01.PM65 (51)
तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++++++अध्याय आर्य और दर्शन आर्य। काशी-कोशल आदि आर्य क्षेत्रों में जन्म लेनेवाले मनुष्य क्षेत्र - आर्य हैं। इक्ष्वाकु, भोज आदि वंशों में जन्म लेनेवाले मनुष्य जाति आर्य हैं। कर्म आर्य तीन प्रकार के होते हैं - सावद्य-कर्म- आर्य, अल्प सावद्य-कर्म-आर्य और असावद्य कर्म आर्य । सावद्य कर्म आर्य छह प्रकार के होते हैं। जो तलवार आदि अस्त्र-शस्त्र के द्वारा रक्षा अथवा युद्ध आदि करने की जीविका करते हैं वे असिकर्म आर्य हैं। जो आय व्यय आदि लिखने की आजीविका करते हैं वे मसिकर्म आर्य हैं। जो खेती के द्वारा आजीविका करते हैं वे कृषिकर्म आर्य हैं। जो विविध कलाओं में प्रवीण हैं और उनसे ही आजीविका करते हैं वे विद्याकर्म आर्य हैं । धोबी, नाई, कुम्हार, लुहार, सुनार वगैरह शिल्प-कर्म-आर्य हैं। वणिज व्यापार करनेवाले वणिक -कर्म-आर्य हैं। उनमें जो अणुव्रती श्रावक होते हैं वे अल्प सावद्य कर्मार्य होते हैं और पूर्ण संयमी साधु असावद्य कर्मार्य होते हैं । चारित्र आर्य दो प्रकार के होते हैं- एक, जो बिना उपदेश के स्वयं ही चारित्र का पालन करते हैं और दूसरे, जो पर के उपदेश से चारित्र का पालन करते हैं। सम्यग्दृष्टि मनुष्य दर्शन आर्य हैं। ऋद्धि प्राप्त आर्यों के भी आठ प्रकार की ऋद्धियों के अवान्तर भेदों की अपेक्षा से बहुत से भेद हैं जो विस्तार के भय से यहाँ नही लिखे हैं ।
म्लेच्छ दो प्रकार के होते हैं- अन्तद्वपज और कर्म भूमिज । लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के भीतर जो छयानवे द्वीप हैं उनके वासी मनुष्य अन्तद्वपज म्लेच्छ कहे जाते हैं। उनकी आकृति आहार-विहार सब असंस्कृत होता है । तथा म्लेच्छ खण्डों के अधिवासी मनुष्य कर्म भूमिज म्लेच्छ कहे जाते हैं। आर्य खण्ड में भी जो भील आदि जंगली जातियाँ बसती है वें भी म्लेच्छ ही हैं ॥ ३६ ॥
अब कर्म भूमियाँ बतलाते हैं
भरतैरावत- विदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र
देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ||३७||
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तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय
अर्थ- पाँचों मेरु सम्बन्धी पाँच भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरू तथा उत्तरकुरू के सिवा शेष पाँच विदेह, ये पन्द्रह कर्म भूमियाँ हैं। पाँचो मेरु सम्बन्धी पाँच हैमवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच हैरण्यवत, पाँच देवकुरू और पाँच उत्तरकुरू, ये तीस भोग भूमियाँ हैं। इनमें दस उत्कृष्ट भोगभूमि हैं, दस मध्यम हैं और दस जधन्य हैं। इनमें दस प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा प्राप्त भोगों का ही प्राधान्य होने से इन्हें भोगभूमि कहते हैं । भरतादिक पन्द्रह क्षेत्रों में बड़े से बड़ा पाप कर्म और बड़े से बड़ा पुण्य कर्म अर्जित किया जा सकता है, जिससे जीव मर कर सातवें नरक में और सर्वार्थसिद्धि मे भी जा सकता है। तथा इन क्षेत्रों में षट् कर्मों के द्वारा आजीविका की जाती है। इसलिए कर्म की प्रधानता होने से इन्हें कर्मभूमि कहते हैं ॥
३७॥
आगे मनुष्यो की आयु बतलाते हैं
नृस्थिति परा वरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहुर्ते ||३८|| अर्थ - मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की है और जधन्य अन्तमुहुर्त की है।
विशेषार्थ प्रमाण दो प्रकार का होता है- एक संख्या रूप दूसरा उपमा रूप । जिसका आधार एक, दो आदि, संख्या होती है उसे संख्या प्रमाण कहते हैं और जो संख्या के द्वारा न गिना जा कर किसी उपमा के द्वारा आंका जाता है उसे उपमाप्रमाण कहते हैं। उसीका एक भेद पल्य है। पल्य गड्ढे को कहते हैं। उसके तीन भेद हैं- व्यवहार पल्य, उद्वार पल्य, अद्धापल्य । एक योजन लम्बा चौड़ा और एक योजन गहरा गोल गड्ढा खोदो । एक दिन से लेकर सात दिन तक के जन्मे हुए भेड़ के बालो के अग्रभागों को कैंची से इतना बारीक काटो कि फिर उन्हें काट सकना संभव न हो। उन बाल के टुकड़ों से उस गड्ढे को खूब हँसकर मुंह तक भर दो। उसे व्यवहार पल्य कहते हैं। इस व्यवहार पल्य रोमों मे से सौ
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