Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA

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Page 25
________________ D:IVIPULIBOO1.PM65 (25) (तत्त्वार्थ सूत्र ************* अध्याय -) उपदेश देता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि कुश्रुत ज्ञानके द्वारा जानकर दूसरों को उपदेश देता है । तथा जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान के द्वारा पदार्थों का निश्चय करता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि कुअवधि (विभंग ज्ञान ) के द्वारा पदार्थों का निश्चय करता है । इस तरह जब मिथ्यादृष्टि के रूप आदि विषयों को ग्रहण करने में कोई विपरीतता नहीं देखी जाती तब उसके ज्ञानों को क्यों मिथ्या कहा जाता है ? इस शंका का निराकरण करने के लिए सूत्रकार सूत्र कहते हैंसदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ||३|| अर्थ-सत् अर्थात विद्यमान और असत् अर्थात् अविद्यमान । अथवा सत् यानी अच्छा और असत् यानी बुरा । मिथ्यादृष्टि सत् और असत् के भेद को नहीं जानता और उन्मत्त पुरुष की तरह अपनी रुचि के अनुसार वस्तु को ग्रहण करता है । जैसे, मदिरा पीकर उन्मत्त हुआ मनुष्य कभी माता को पत्नी कहता है, कभी पत्नी को माता कहता है । कभी-कभी पत्नी को पत्नी और माता को माता भी कह बैठता है। फिर भी वह ठीक समझ कर ऐसा नहीं कहता । इसी तरह मिथ्यादृष्टि भी घट-पट आदि पदार्थों को घट-पट आदि ही जानता है, किन्तु मिथ्यात्व का उदय होने से यथार्थ वस्तु स्वरूप का ज्ञान उसे नहीं है। इसीसे उसका ज्ञान मिथ्या माना जाता है ।। ३२ ॥ इस तरह प्रमाण का कथन करके अब नय के भेद बतलाते हैं। नैगम-संग्रहव्यवहार-र्जुसूत्र-शब्द समभिरुद्वैवंभूता नया: ॥३३|| अर्थ-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय हैं। विशेषार्थ- इन सात नयों का स्वरूप इस प्रकार है- एक द्रव्य (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय :D अपनी भूत, भविष्यत् और वर्तमान पर्यायों से जुदा नहीं है, बल्कि त्रिकालवर्ती पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है । अतः जो भूत और भविष्यत् पर्यायों में वर्तमान का संकल्प करता है या वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई उसे पूर्ण मानता है उस ज्ञान को तथा वचन को नैगनमय कहते हैं। जैसे एक मनुष्य कुल्हाड़ा लेकर वन की ओर जाता है। उसे देखकर कोई पूछता है कि आप किस लिए वन जा रहे हैं? तो वह उत्तर देता है- मैं इन्द्र लेने के लिए जा रहा हूँ। किन्तु वास्तव में वह लकड़ी लेने जा रहा है परन्तु उसका संकल्प उस लकड़ी से इन्द्र की प्रतिमा बनाने का है। अतः वह अपने संकल्प में ही इन्द्र का व्यवहार करता है। इसी तरह एक आदमी लकड़ी पानी वैगरह रख रहा है। उससे कोई पूछता है- आप क्या कर रहे है ? तो वह उत्तर देता है- मैं भात पका रहा हूँ । किन्तु उस समय वह भात पकाने की तैयारी कर रहा है। पर चूंकि उसका संकल्प भात पकाने का है अतः जो पर्याय अभी निष्पन्न नहीं हुई है उसे वह निष्पन्न मानकर करता है- यह नैगमनय है। अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का एक रूपसे संग्रह करनेवाले ज्ञान को और वचन को संग्रह नय कहते हैं। जैसे 'द्रव्य' कहने से सब द्रव्यों का ग्रहण होता है, जीव कहने से सब जीवों का ग्रहण होता है, पुद्गल कहने से सब पुदगलों का ग्रहण होता है ॥२॥ संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है। जैसे 'द्रव्य' कहने से काम नहीं चल सकता। अत: व्यवहार नय की आवश्यकता होती है। व्यवहार से द्रव्य के दो भेद हैं- जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । जीव और अजीव कहने से भी काम नहीं चलता । अतः जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । संसारी के भी देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि भेद हैं। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि पाँच भेद हैं। पुद्गल के दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध । इस प्रकार व्यवहार नय तब तक भेद करता जाता है जब तक भेद हो सकते हैं ॥३॥

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