Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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(तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र और संयमासंयम अर्थात् देश व्रत, ये अट्ठारह भाव क्षायोपशमिक हैं, क्योंकि ये भाव अपने प्रतिपक्षी कर्म के क्षायोपशम से होते हैं ॥५॥ अब औदायिक भाव के इक्कीस भेद कहते हैं
गति-कषाय-लिङ्ग मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्वतुस्थ्येकैकैकैक-षड्भेदा: ||६|
अर्थ- चार गति, चार कषाय, तीन लिंग अर्थात् वेद, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धत्व और छ: लेश्याएं ये औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं।
विशेषार्थ - चार गतियाँ-नरक गति, तिर्यन्च गति, मनुष्य गति और देव गति, ये गतिनाम कर्म के उदय से होती हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएं चारित्र मोहनीय के भेद कषायवेदनीय के उदय से होती हैं । लिंग के दो भेद हैं- द्रव्यलिंग और भावलिंग । शरीर में होनेवाले स्त्री और पुरुष के चिन्ह आदि को द्रव्य लिंग कहते हैं। द्रव्य लिंग नाम कर्म के उदय से होता है। अतः उसका यहाँ अधिकार नहीं है; क्योंकि यहाँ आत्मा के भावों का कथन है। अत: स्त्री-पुरुष और दोनों से रमण करने की अभिलाषा रूप जो भाव वेद हैं उसी का यहाँ अधिकार है। सो चारित्र मोहनीय का भेद नोकषाय है और नो-कषाय भेद स्त्रीवेद, पुरुषवेद
और नपुंसक वेद कर्म के उदय से स्त्री लिंग, पुरुष लिंग और नपुसंक लिंग होते हैं। दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान न करने रूप मिथ्यादर्शन भाव होता है । ज्ञानावरण कर्म के उदय से न जाननेरूप अज्ञान भाव होता है। चारित्र मोह के उदय से प्राणियों की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त न होने रूप असंयत भाव होता है। कर्म मात्र का उदय होने से सिद्ध
(तत्वार्थ सूत्र ** *****अध्याय . पर्याय की प्राप्ति न होने रूप असिद्धत्व भाव होता है।
लेश्या दो प्रकार की होती हैं- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । जीव के भावों का अधिकार होने से यहां द्रव्य लेश्या का अधिकार नहीं है। कषायों के उदय से रंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं । उसके छ: भेद हैं- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म तथा शुक्ल। सो आत्मा के भावों में अशुद्धता की वेशी-कमी को लेकर कृष्ण आदि शब्दों का उपचार किया है।
शंका - आगम में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोग केवली नाम के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में लेश्या कही है; किन्तु इन गुणस्थानों में कषाय का उदय नहीं है। तब वहां लेश्या औदयिक कैसे है? अथवा वहाँ लेश्या ही कैसे है ? क्योंकि कषाय से रंजित योग की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है।
समाधान - इन गुणस्थानों में कषाय का उदय न होने पर भी पूर्वभाव प्रज्ञापन-नय की अपेक्षा से लेश्या कही है । अर्थात् पहले यही योग कषाय से रंजित था तब लेश्या कही थी अब इन गुणस्थानों में कषाय का उदय तो रहा नहीं, परन्तु योग वही है जो पहले कषाय के रंग में रंगा था। अतः उपचार से लेश्या कही है। अयोग केवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाने से लेश्या नहीं बतलायी है।
शंका-औदयिक भाव तो और भी अनेक हैं । जैसे अज्ञान औदयिक है वैसे ही अदर्शन भी औदयिक है । निद्रानिद्रा वगैरह भी औदयिक हैं। वेदनीय के उदय से होनेवाला सुख-दुःख भी औदयिक है । हास्य आदि छह नोकषाय भी औदयिक हैं। आय के उदय से एक भव में रहना भी औदयिक है। गोत्र कर्म के उदय से होने वाले नीच-उच्च गोत्र भी औदयिक हैं । नाम कर्म के उदय से होने वाली जाति वगैरह भी औदयिक है। इन सबका ग्रहण यहाँ क्यों नहीं किया ?