Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Kailashchandra Shastri
Publisher: Prakashchandra evam Sulochana Jain USA
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तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय :D अब प्रमाण के उन दो भेदों को बतलाकर सुत्रकार पूर्वोक्त पाँच ज्ञानों का उनमें अन्तर्भाव करते हैं
आधे परोक्षम् ।।११।। अर्थ- पाँच ज्ञानों में से आदि के दो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं।
विशेषार्थ-यहाँ "आद्य" शब्द का द्विवचन में प्रयोग होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ग्रहण किया है। दोनों ज्ञान पर' अर्थात् इन्द्रिय, मन, उपदेश, प्रकाश आदि की सहायता से होते हैं इसलिए ये परोक्ष हैं; क्योंकि जो ज्ञान पर की अपेक्षा से होता है उसे परोक्ष कहते हैं ॥११॥
अब मति और श्रुत के सिवा बाकी के तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष बतलाते हैं
प्रत्यक्षमन्यत् ||११|| अर्थ- मति और श्रुत के सिवा शेष अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
विशेषार्थ- अक्ष नाम आत्मा का है। जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है, इन्द्रिय, प्रकाश, उपदेश आदि की सहायता नहीं लेता, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-विकल प्रत्यक्ष यानी एक देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष । अवधि और मनःपर्यय विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है ॥१२॥
आगे परोक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में विशेष कथन करते हैंमति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।।१३।।
अर्थ- मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध, ये मतिज्ञान के ही नामान्तर हैं; क्योंकि ये पाँचो ही मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र ## #########अध्याय -
विशेषार्थ- इन्द्रिय और मन की सहायता से जो अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है उसे मति कहते हैं। न्याय शास्त्र में इस ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है; क्योंकि लोक व्यवहार में इन्द्रिय से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। परन्तु वास्तव में तो पराधीन होने से यह ज्ञान परोक्ष ही है। पहले जानी हुई वस्तु को कालान्तर में स्मरण करना स्मृति है। जैसे, पहले देखे हुए देवदत्त का स्मरण करना 'वह देवदत्त' यह स्मृति है। संज्ञा का दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान है। वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर पहले देखी हुई वस्तु का स्मरण होना और फिर पहले देखी हुई वस्तु का और वर्तमान वस्तु का जोड़ रूप ज्ञान होना प्रत्यभिज्ञान है। न्यायशास्त्र में प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद बतलाये हैं, जिनमें चार मुख्य हैं- एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान और तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान। किसी पुरुष को देखकर "यह वही पुरुष है जिसे पहले देखा था।" ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होना एकत्व प्रत्यभिज्ञान है। वन में गवय नाम के पशु को देखकर ऐसा ज्ञान होना कि यह गवय मेरी गौ के समान है, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। भैंस को देखकर यह भैंस मेरी गौ से विलक्षण है ऐसा जोड़रूप ज्ञान होना तो तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान है। निकट की वस्तु को देखकर पहले देखी हुई वस्तु के स्मरण पूर्वक ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होना कि इससे वह दूर है, या ऊँची है, या नीची है, इत्यादि ज्ञान को तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। चिन्ता का दूसरा नाम तर्क है। जहाँ अमुक चिन्ह होता है वहाँ उस चिन्ह वाला भी होता है। ऐसे ज्ञान को चिन्ता या तर्क कहते हैं । न्यायशास्त्र में व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं और साध्य के अभाव में साधन के अभाव को तथा साधन के सद्भाव में साध्य के सद्भाव को व्याप्ति कहते हैं । जैसे, अग्नि के न होने पर धुआँ नहीं होता
और धुआँ होने पर अग्नि अवश्य होती है यह व्याप्ति है और इसको जानने वाले ज्ञान को तर्क प्रमाण कहते हैं और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है उसे साधन कहते हैं। साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिबोध कहते हैं।