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द्वितीयस्तम्भः। रूपि द्रव्यस्वरूपं वा दृष्टा ज्ञानेन चक्षुषा ॥
दृष्टं लोकमलोकं वा रकारस्तेन उच्यते ॥४१॥ व्या०-रूपी द्रव्य, वा शब्दसे अरूपी द्रव्य, ज्ञाननेत्रकरके जिसने देखा है, तथा लोकालोक जिसने देखा है, इसवास्ते रकार कहते हैं॥४१॥
हता रागाश्च द्वेषाश्च हता मोहपरीषहाः ॥
हतानि येन कर्माणि हकारस्तेन उच्यते ॥ ४२ ॥ व्या०-राग, द्वेष, अज्ञान, परीषह और अष्टकर्म हनन किये हैं, अर्थात् नष्ट किये हैं, इसवास्ते हकार कहते हैं. ॥ ४२ ॥
संतोषेणाभिसंपूर्णः प्रातिहार्याष्टकेन च ।
ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च नकारस्तेन उच्यते ॥४३॥ व्या०-संतोषकरके जो सर्वतरेसें संपूर्ण है, और अष्ट प्रातिहार्यकरके संपूर्ण है, सो अष्ट प्रातिहार्य लिखते हैं
“किंकिल्लि कुसुमबुद्धि देवष्भुणि चामरासणाइं च ||
भावलय भेरि छत्तं जयति जिणपाडिहेराइं” १ ॥ __व्या०-भगवंतके सहचारि होनेसें प्रातिहार्य कहे जाते हैं, अथवा इंद्रके आदेश करनेवाले देवताओंका जो कर्म उसको प्रातिहार्य कहते हैं, वे आठही प्रातिहार्य देवताके करे जाणने.
किंकिल्ली०-अशोकवृक्ष-सो जहां श्रीभगवंत विचरे समवसरे, वहां महाविस्तीर्ण कुसुमसमूह लब्धभ्रमरनिकर शीतलसच्छाय मनोहर विस्तीर्ण शाखावाला भगवान्के देहमानसें बारां गुणा अशोकवृक्ष देवता करते है, तिसके नीचे बैठके भगवान् देशना (धर्मोपदेश) देते हैं, ॥ १॥ - कुसुमबुट्टि-पुष्पवृष्टिः-जलस्थलके उत्पन्न हुये, श्वेत, रक्त, पीत, नील, श्याम, ऐसे पांच वर्षों के विकस्वर सरस सुगंधमय फूलोंकी वर्षा समवसरणकी पृथ्वीमें देवता करते हैं; जिसमें फूलोंके बीट नीचेपासे, और मुख ऊंचेपासे होते है, तथा वर्षा गोडेप्रमाण होती है; अर्थात् पुष्पवृष्टिसें समवसरण भूभागमें जानुप्रमाण उंचा पुष्पसमूह होता है.॥२॥
देवभुणि-दिव्यध्वनिः-भगवान् जिस वखत अत्यंत मधुर स्वरकरके
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