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तत्त्वनिर्णयप्रासादव्याख्या-अनार्य पुरुषोंकों भले वचनोंवालाभी उपदेष्टा क्या करता है ? अपितु कुछभी नहीं कर सक्ता है, जैसें बुरे काष्टमें तीक्ष्णभी कुठार कुंठ हो जाता है.॥ अप्रशांत, मिथ्यात्व करके अति मलीन बुद्धिवाले पुरुष विषे शास्त्रका यथार्थ तत्व प्रतिपादन करना दोषकेतांइ होता है, जैसे नवीन ज्वरके उदयमें शमन करनेयोग ओषधका करना, अथवा घृत दुग्धादि पान कराना दोषकेतांइ होता है. ॥ चंद्रमा सूर्य उदय हुए हैं, तथा जाज्वल्यमान कोटिदीपकभी निर्मल जलते हैं, तोभी वे चंद्रादि, जैसें अंधपुरुषविषे उपकार नहीं करसक्ते हैं, तैसेंही मिथ्यात्व अज्ञानरूप अंधकारकरके आच्छादित मतिवाले पुरुषोंकों सद्गुरुका उपदेशभी उपकार नहीं करसक्ता है. ॥एकही तलावमें जैसें सर्प और गौ शुभ जल पीते हैं, परंतु सर्पविषे वोही जल विषरूप परिणामे परिणमता है, और वोही जल गौकेविषे दुध होके परिणमता है. ॥ तैसेंही सम्यक् आविपरीत ज्ञानरूप तलावमें जिनतीर्थंकर अरिहंतका ज्ञानरूप पाणी पीनेवाले सत् और असत्पुरुषोंको परिणमता है, सत्पुरुषोंमें तो सम्यक्त्वरूप होके परिणमता है, और असत्पुरुषोंमें मिथ्यात्वरूप होके परिणमता है.॥ जैसें एकरसवाला पानी, आकाशसें पडता है, और सो पानी नानाप्रकारकी पृथ्वीकों प्राप्त होके न्यारे न्यारे भाजनोंके विशेषसें नानारसपणे गप्त होता है. ॥ तैसेंही एकरसवाला वाक्य, तिस वक्ताके मुखसें निकला हुआ, नानारसपणे अर्थात् न्यारे न्यारे जीवोंके भावोंकों प्राप्त होके नाना कारके अभिप्रायपणे परिणमता है.॥ जैसें अपनेही दोषकों प्राप्त होके उल्लु- सूर्यके उदयकों नहीं इच्छता है, और जैसें सर्व मूंगोकेसाथ तुल्यपाकके भी कोकडु रंधाता नहीं है, तैसेंही सर्व पदार्थोंके स्वरूपका प्रकट करनेवाला जैनमत पाकरकेभी, पापबुद्धि बुरे जन, तुल्यकथाके श्रवण करनेसेंभी बाकों प्राप्त नहीं होते हैं. ॥६।७।८।९।१०।११।१२॥१३॥ अथ ग्रंथकार तत्त्वनिणे करनेकों कहते हैं. हठी हठे यद्वदति लुत यान्नौ वि बद्धा च यथा समुद्रे॥ तथा परप्रत्ययमात्रदक्षो
: प्रमादाम्भसि बम्भ्रमीति ॥१४॥ ,
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