Book Title: Tattvanirnaya Prasada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Amarchand P Parmar

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Page 820
________________ पत्रिंशःस्तम्भः। तदुक्तम् ॥ "॥ व्यावहारिकप्रत्यक्षागोचरत्वममूर्त्तत्वं परमाणोक्तिं स्वीक्रियतइत्यर्थः ॥"।१५। कालाणु, और पुद्गलाणुको परमभावग्राहकनयके मतसें, एकप्रदेशस्वभाव; और भेदकल्पनानिरपेक्षतासें शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे एकप्रदेशस्वभाव, कालपुद्गलसे इतर धर्माधर्माकाशजीवोंको भी, अखंड होनेसें है.।१६। भेदकल्पनासापेक्षसें शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसें, एक छूटे परमाणुविना सर्वद्रव्यको अनेकप्रदेशस्वभाव; और पुद्गलपरमाणुको भी अनेकप्रदेश होनेकी योग्यता है, तिसवास्ते उपचारसें तिसको भी अनेकप्रदेशस्वभाव कहिये. और कालाणुमें सो उपचार कारण नहीं है, तिसवास्ते तिसको सर्वथा यह स्वभाव नहीं है. । १७। शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकनयके मतसें, विभावस्वभाव है. । १८॥ शुद्धद्रव्यार्थिकनयके मतसें, शुद्धस्वभाव है. । १९ । अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके मतसें, अशुद्धस्वभाव है. । २० । असद्भूतव्यवहारनयके मतसें, उपचरितस्वभाव है. । २१ । येह नयोंके मतसें स्वभावोंका वर्णन कथन किया. अथ किंचिन्मात्र नयका स्वरूप लिखते हैं. "॥नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्त्यैकस्मिन् स्वभावे वस्तुनयनं नयः॥" भावार्थ:-नाना स्वभावसे हटाके, वस्तुको एक स्वभावमें प्राप्त करना, सो नय है. अथवा । “॥प्रमाणेन संग्रहीतार्थेकांशो नयः॥" भावार्थ:-प्रमाणकरके जो संगृहीतार्थ है, तिसका जो एक अंश, सो नय. अथवा। “॥ ज्ञातुरभिप्रायः श्रुतविकल्पो वा इत्येके ॥" भावार्थ:-ज्ञाताका जो अभिप्राय, वा श्रुतविकल्प, सो नय.। अथवा। “॥ सर्वत्रानंतधर्माध्यासिते वस्तुनि एकांशग्राहको बोधो नयः ॥”. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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