Book Title: Tattvanirnaya Prasada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Amarchand P Parmar

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Page 840
________________ पशिस्तम्भः। ७३३ तथा अन्यग्रंथसे व्यवहारनयका कितनाक स्वरूप लिखते हैं:-भेदोपचारकरके जो वस्तुका व्यवहार करे, सो व्यवहारनय. गुणगुणिका (१) द्रव्यपर्यायका (२) संज्ञासंज्ञिका (३) स्वभावस्वभाववालेका (४) कारककारकवालेका (५) क्रियाक्रियावालेका (६) भेदसें जो भेद करे, सो सद्भूतव्यवहार. । १ । ___ शुद्धगुणगुणिका, और शुद्धपर्यायव्यका भेद कथन करना, सो शुद्धसद्भूतव्यवहार. ।२। उपचरित सद्भूतव्यवहार. तहां सोपाधिक अर्थात् उपाधिसहित गुणगुणिका जो भेदविषय, सो उपचरितसद्भूतव्यवहार. जैसें जीवके मतिज्ञानादिक गुण है. ।३। निरुपाधिक गुणगुणिकाभेदक, अनुपचरितसद्भूतव्यवहार. जैसें, जी. वके केवलज्ञानादि गुण है. । ४।। __ अशुद्ध गुणगुणिका, और अशुद्ध द्रव्यपर्यायका भेद कहना, सो अशु. द्धसद्भूतव्यवहार.। ५। स्वजातिअसद्भूतव्यवहार. जैसें, परमाणुको बहुप्रदेशी कथन करना.६। विजातिअसद्भूतव्यवहार. जैसें, मतिज्ञान मूर्त्तिवाला है, मूर्तिद्रव्यसें उत्पन्न होनेसें.। ७। उभयअसद्भूतव्यवहार. जैसें, जीव अजीव ज्ञेयमें ज्ञान है, जीव अजीवको ज्ञानके विषय होनेसें. । ८। स्वजातिउपचरितासद्भूतव्हवयार. जैसे, पुत्र भार्यादि मेरे हैं.।९। विजातिउपचरित असद्भूतव्यवहार. जैसें, वस्त्र भूषण हेम रत्नादि मेरे हैं.। १०। तदुभयउपचरित असद्भूतव्यवहार. जैसें, देश राज्य कीर्ति गढादि मेरे हैं. ।११। .. अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना, सो असतव्यवहार.। १२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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