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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
भावार्थः- चारित्ररहितको बहुत पढया भी ज्ञान क्या करेगा? जैसें अंधेको लाख क्रोड दीवे भी प्रकाश नही कर सकते हैं. तथा कोई पुरुष रस्ता तो जानता है, परंतु चलता नही तो, क्या वो मजलसिर इच्छित ग्राम वा नगरको पहुंचेगा ? कदापि नही. तथा जो, तरना जानता है, परंतु नदी में हाथ पग नही हिलाता है तो, क्या वो पार हो जायगा ! नहीं डूब जायगा ? ऐसेंही क्रियाहीन ज्ञानी, जानना ॥
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तथा ॥" जहा खरो चंदन भारवाही इत्यादि ” - जैसें गदहे ऊपर चंदन लावा, परंतु गर्दभको चंदनका सुख नही, ऐसेंही क्रियाहीन ज्ञानवान्को सुगति नही. अन्योंने भी कहा है. ॥
क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतं ॥
यतः स्त्रीभक्षभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥ भावार्थ:- क्रियाही पुरुषोंको फलदात्री है, ज्ञान नही. क्योंकि, स्त्री और मोदकादिके ज्ञान कामी और भूखे, तृप्त नही होते हैं.
यह तो क्षायोपशम चारित्रक्रियाकी अपेक्षा प्राधान्यपणा कहा. अब क्षायिकी क्रियापेक्षा कहते हैं. अर्हन् भगवानको केवलज्ञान भी होगया है, तो भी, जबतक सर्वसंवररूप पूर्णचारित्र चतुर्दशगुणस्थान नही आता है, तबतक मुक्तिकी प्राप्ति नही होती है. इस वास्ते क्रियाही प्रधान है । इति क्रियानयमतम् ॥
इन पूर्वोक्त दोनों नयोंको पृथक् २ एकांत माने तो, मिथ्यात्व है; और स्याद्वादसंयुक्त माने तो, सम्यग्दृष्ट है. ऐसेंही सर्वनयभेदमें निष्कर्ष
जानना.
अब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकका थोडासा विस्तार लिखते हैं. उनमें नैगमद्रव्यार्थिकनय, धर्मधर्मी द्रव्यपर्यायादि प्रधानअप्रधानादि गोचर - करके ग्रहण करी वस्तुके समूहार्थको कहता है । १ ।
संग्रहद्रव्यार्थिकनय, अभेदरूपकरके वस्तुजातको एकीभावकरके ग्रहण करता है. । २ ।
व्यवहारद्रव्यार्थिकनय, संग्रहने ग्रहण किया जो अर्थ, तिसके भेदरूपकरके जो वस्तुका व्यवहार करे सो व्यवहार द्रव्यार्थिकनय है. । ३ ।
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