Book Title: Tattvanirnaya Prasada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Amarchand P Parmar

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Page 816
________________ ७९ षट्त्रिंशस्तम्भः। यादि परमभावस्वभाव न माने तो, द्रव्यमें प्रसिद्धरूप कैसे दिया जाय? स्योंकि, अनंतधर्मात्मक वस्तुको एकधर्मपुरुषकारकरके बुलाना कथन करना, सोही परमभावस्वभावका लक्षण है. ।११।। जेकर एकांतचैतन्यस्वभाव माने तो, सर्व वस्तु चैतन्यरूप होजावेगी; तब ध्यान, ध्येय, ज्ञान, ज्ञेय, गुरु शिष्यादिकका अभाव होवेगा. क्योंकि, जब जीवको सर्वथा चेतनस्वभावही कहें, अचेतनस्वभाव न कहें तो, अचेतनकर्मका जो कर्मद्रव्योपश्लेष तिसकरके जनित चेतनके विकार विना, जीवको शुद्ध सिद्धसदृशपणा होगा; तब तो, ध्यान ध्येय गुरु शिष्य इनकी क्या जरूर है ? ऐसें तो सर्वशास्त्रव्यवहार निष्फल होजायगा. शुद्धको अविद्यानिवृतिपणे, क्या उपकार होवे ? इसवास्ते 'अलवणा यवागूः' इस वचनवत्, अचेतन आत्मा, ऐसा भी कथंचित् कहना योग्य है. । १२ । जेकर एकांत अचेतनस्वभाव माने, तब सकलचैतन्यका उच्छेद होवेगा.। १३। जेकर एकांत मूर्त माने, तब आत्माकी मुक्तिकेसाथ व्याप्ति न हो. वेगी.।१४। जेकर एकांत अमूर्त माने, तब आत्मा संसारी कदापि न होवेगा.।१५। जेकर एकांत एकप्रदेशस्वभाव माने, तब अखंड परिपूर्ण आत्माको अनेककार्यकारित्वकी हानि होवेगी. जैसे घटादिक अवयवी, देशसें सकंप, और देशसे निष्कंप देखते हैं; सो द्रव्यको अनेकप्रदेशी न माननेसें कैसें सिद्ध होवेगा? यदि अवयव कंपते हुए भी, अवयवी निष्कंप है, ऐसे कहो तो 'चलती' यह प्रयोग कैसे सिद्ध होगा? प्रदेशवृत्तिकंपका जैसें परंपरासंबंध है, तैसें देशवृत्तिकंपाभावका भी परंपरासंबंध है, तिसवास्ते देशसें चलता है, और देशसें नही चलता है, इस अस्खलित व्यवहारमें अनेक प्रदेश मानना; तथा अनेक प्रदेश स्वभाव न मानीये तो, आकाशादि द्रव्यमें परमाणुसंयोग कैसें घट सके ? क्योंकि, एकवृत्ति तो देशसें है, जैसें कुंडल इंद्रको, यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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