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तत्त्वनिर्णयप्रासादअनेकरूप माने, तब द्रव्यका अभाव होवेगा, निराधार होनेसें; और आधाराधेयके अभावसें वस्तुकाही अभाव होवेगा. ।। __ जेकर एकांत भेदही माने, तब विशेषोंके निराधार होनेसें, नि केवल गुणपर्यायका बोध न होना चाहिये. क्योंकि, आधाराधेयके अभेदविना दूसरा संबंध, घटही नहीं सकता है; एसे हुए अर्थक्रियाकारित्वका अभाव होवेगा, और तिसके अभावसे द्रव्यका भी अभाव होवेगा.। ७। ___ जेकर एकांत अभेदपक्ष माने, तब सर्व पदार्थ एकरूप होजावेंगे; तिसकरके 'इदं द्रव्यं' यह द्रव्य 'अयं गुणः' यह गुण 'अयं पर्यायः' यह पर्याय, इत्यादि व्यवहारका विरोध होवेगा; और अर्थक्रियाका अभाव होवेगा, अर्थक्रियाके अभावसे द्रव्यकाभी अभाव होवेगा.।।
जेकर एकांत भव्यस्वभावही माने, तब सर्वद्रव्य परिणामी होके द्रव्यांतरके रूपको प्राप्त होवेंगे, तब संकरादि दूषण होवेंगे. संकरादि दूषण येह हैं. संकर (१), व्यतिकर (२), विरोध (३), वैयधिकरण (४), अनवस्था (५), संशय (६), अप्रतिपत्ति (७), अभाव (८). . इनका अर्थः-सर्ववस्तुकी एकवस्तु होजावे, तव संकरदूषण होवें. १. जिस वतुस्की किसीप्रकारसें भी स्थिति न होवे, सो व्यतिकरदूषण. २. जडका स्वभाव चेतन होवे, और चेतनका स्वभाव जड होवे, सो विरोधदूषण. ३. जो अनेकवस्तुकी एककेविषे विषमताकरके स्थिति होवे, सो वैयधिकरणदूषण ४. एकसे दूसरा उत्पन्न होगा, दूसरेंसें तीसरा, तीसरेसें चौथा उत्पन्न होगा, इसतरें जडसें चेतन, चेतनसें जड, सो अनवस्थादूषण. ५. इसको चेतन कहें कि, जड कहें ? ऐसा जो संदेह, सो संशयदूषण. ६. जिसका किसही कालमें निश्चय न होवे कि, यह जड है कि चेतन है सो अप्रतिपत्तिदूषण. ७. सर्वथा वस्तुका नाशही होवे, सो अभावदूषण. ८. इसवास्ते इन पूर्वोक्त दूषणोंके दूर करनेवास्ते, कथंचित् अभव्यपक्ष भी माननाही योग्य है. ।९।
जेकर एकांत अभव्यखभावही माने, तब सर्वथा शून्यताकाही प्रसंग होवेमाः । १०॥
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