Book Title: Tattvanirnaya Prasada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Amarchand P Parmar

View full book text
Previous | Next

Page 776
________________ षट्त्रिंशःस्तम्भः ६७१ प्रपंचरूप पंचास्तिकाय मानते हैं, इन पांचोंके अनेक भेद मानते हैं; और सर्व पदार्थों में सप्तभंगाका समवतार करते हैं. स्यादस्तिइत्यादि सप्तभंगी एकत्वनित्यत्वादिकोंमें भी जोडलेनी.” यहां तक तो शंकरखामीका कहना ठीक है. क्योंकि, जैनी भी इसीतरें मानते हैं. परंतु जो शंकर कहता है, कि एकधर्मीमें युगपत् सत् असत् आदिधर्मोका समावेश नही हो सकता है, सो कहना महामिथ्यात्वके उदयसें झूठ है. क्योंकि, जैसे जैनी मानते हैं, तैसें तो सत्य है. यथा घट, अपने मृत्तिकाद्रव्यका १, क्षेत्रसें पाटलिपुत्रक क्षेत्रका २, कालसें वसंतऋतुका बना हुआ ३, और भावसें जलधारणजलहरणक्रियाका करनेवाला ४, इन अपने स्वचतुष्टयकी अपेक्षा, घट, 'अस्ति ' और 'सत्रूप' है. और पटके द्रव्यक्षेत्रकालभावकी अपेक्षा, घट, 'नास्ति' और ' असरूप' है. पटके स्वरूपकी नास्तिरूप घट है, और घटके स्वरूपकी नास्तिरूप पट है. सर्व पदार्थ अपने स्वरूपकरके अस्तिरूप है, और परस्वरूपकी अपेक्षा नास्तिरूप है. जेकर सर्व पदार्थ स्वपरस्वरूपकरके अस्तिरूप होवें, तब तो, सर्व जगत् एकरूप हो जावेगा. तब तो, विद्या, अविद्या, जड, चैतन्य, द्वैत, सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य, समल, विमल, साध्य, साधन, प्रमाण, प्रमेय, प्रमुख सर्व पदार्थ एकरूप होजावेंगे. यह तो, महाप्रत्यक्षरूपविरोधकरके ग्रस्त है. क्योंकि, जब शंकरस्वामी ब्रह्मको 'सप' मानेगा, तब तो, ब्रह्मको पररूपकरके 'असत् ' माननाही पडेगा. जेकर पररूपकरके ब्रह्मको असत् नहीं मानेंगे. तब तो पर जो अविद्या माया तिसके स्वरूपकी ब्रह्मको प्राप्ति हुई, तब तो ब्रह्महीके स्वरूपका नाश हो जावेगा. वाह रे शंकरस्वामी ! आपने तो अपनीही आंखमें कंकर मारा!!! ___ तथा शंकरस्वामी लिखते है, जो येह सातपदार्थ निश्चित करे हैं, ये इतनेही हैं, और ऐसें स्वरूपवाले हैं, वे पदार्थ तथा अतथारूपकरके होने चाहिये. तव तो, अनिश्चितरूप ज्ञानके होनेसें संशयज्ञानवत् अप्रमाणरूप हुए.' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878