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अष्टमस्तम्भः।
२११ युक्त हुआ थका सृष्टिसंहार करके वारंवार आता है, मायामें आयांअनंतर देव मनुष्य तिर्यगादिरूपकरके विविध प्रकारका हुआ थका जड चैतन्यके रूपकों व्याप्त होता है इत्यादि-अब हे प्रियवाचकवर्गो ! तुम विचार करो कि, जब एक अद्वैतही शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप माना, तो फेर तिसका एक भाग तो मायासहित, और तीन भाग मायारहित निरुपाधिक संसारके स्पर्शरहित अमृतरूप कैसे हो सक्ते हैं ? तथा चौथा भाग जो मायावाला है, सो क्या ब्रह्मसें भिन्न है ? जेकर भिन्न है, तब तो दो ब्रह्म मानने पडेंगे; एक तो तीन गुणाधिक शुद्ध ब्रह्म,
और एक चतुर्थांश मायावाला. जेकर तो ये दोनों ब्रह्म अनादिसे भिन्न है, तब तो तीनों कालोंमें भी अद्वैतकी सिद्धि नहीं होगी, जेकर एकही ब्रह्मका चतुर्थांश मायावान् है, शेष तीन भाग निर्मल है, तब तो यह प्रश्न उत्पन्न होवेगा कि, यह चौथा भाग अनादिसेंही मायावान् है, वा पीछेसें मायाका संबंध हुआ है ? जेकर कहोंगे कि, अनादिसेंही मायावान् है, तब तो ब्रह्म सावयव वस्तु सिद्ध होवेगा, जैसें देवदत्तके पगऊपर कुष्टका रोग है, शेषशरीर निरोग है; ऐसेंही ब्रह्मके तीन अंश तो निर्मल हैं, और एक अंश मायासंयुक्त है. इससे ब्रह्म सावयव सिद्ध होता है. और तीन अंशोंसें तो सच्चिदानंदखरूपमें मग्न है, और एक अंशकरके जन्म, मरण, रोग, शोक, जरा, मृत्यु, अनिष्टसंयोग, इष्टवियोगादि अनंत दुःखोंकों भोग रहा है; और सदाही जिसकी ये दो अवस्था बनी रहेगी, तो फेर मुक्तरूप कौन ठहरा? और संसाररूप कौन ठहरा? जिस मायाने ब्रह्मके चौथे अंशकी ऐसी दुर्दशा कर रक्खी है, फेर तिस मायाकों सदा न मानना यह कैसी भूल है ?
जेकर कहोंगे ब्रह्मका चतुर्थांश मायासंयुक्त आदिवाला है, जब ब्रह्ममें फुरणा होती है, तब चतुर्थांश मायावान् हो जाता है, यह भी ठीक नही, क्योंकि, फुरणेसे पहिले तो माया नही थी, तो फेर फुरणा किस निमित्तसें हुआ? जेकर कहोंगे ब्रह्मस्वभावसेंही फुरणावाला होता है, तब तो संपूर्ण ब्रह्मकों युगपत् फुरणा होना चाहिये, नतु चतुर्थांशकों. जेकर कहोंगे
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