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तत्वनिर्णयप्रासाद
॥ अथैकादशस्तम्भारम्भः॥ दशमस्तंभमें वेद ईश्वरोक्त नहीं है, यह सिद्ध किया. अथ एकादशस्तंभमें जैनाचार्योंका यत्किंचित् बुद्धिका वैभव दिखाते हैं, जो कि दशमस्तंभमें प्रतिज्ञात है.
चिदात्मदर्शसंक्रान्त लोकालोकविहायसे॥ . पारेवाग्वृत्तिरूपाय प्रणम्य परमात्मने ॥१॥ गम्भीरार्थामपि श्रुत्वा किंचिद्गुरुमुखाम्बुजात् ॥ परेषामुपयोगाय गायत्रीं विटणोम्यहम् ॥२॥ इमां ह्यनादिनिधनां ब्रह्मजीवानुवेदिनः॥ आमनन्ति परे मन्त्रं मननत्राणयोगतः ॥३॥ गायन्तं त्रायते यस्मात् गायत्रीति ततः स्मृता॥
आचारसिद्धावप्यस्या इत्यन्वर्थ उदाहृतः॥४॥ ऋ० सं० अष्टक ३ अध्याय ४ वर्ग १० में गायत्री है, और यजुर्वेदके ३६ मे अध्यायमें भी गायत्री है, ऋग्वेदमें-" तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्”-यजुर्वेद में-"भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यमित्यादि"-और शंकरभाष्यमें ॐकारपूर्वक है-तैत्तिरीयआरण्यकके २७ अनुवाकमें भी “ॐतत्सवितु" रित्यादि है. तब तो-“ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् "-ऐसा गायत्रीमंत्र हुआ. अब इस पूर्वोक्त गायत्रीमंत्रका सर्वदर्शनके अभिप्रायकरके व्याख्यान करते हैं, तिनमेंसें भी प्रथम जैनमतानुयायी अर्थात् जैनमतके अभिप्रायकरके अर्थ लिखते हैं.
ॐ भूर्भुवःस्वस्तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गोदे वस्यधीमहि । धियोयो नः प्रचोदयात् ॥१॥ ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्। सवितुः। वरेण्यम्।भर्गोदे। वसि।अधीमहि धियः। यो । नः। प्रचः। उदयात् ॥ १॥
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