Book Title: Tarayana
Author(s): Shankuk, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 58
________________ तारायणो (Index Verse 13 ) 'अवरिट्टिय-लीहं' ति य 'चक्कयरेणं' ति तह य गाहाओ । काओ वि अवकाउ वाइ तो कह णु घडियाओ ||५७ थे 'काओ वि' वक्रोक्त्या भणिते । 'अवकाउ' अपरके परहिते निर्मलार्थे इति यावत् । ते तादृश्यौ गाथे वादिनाssचार्येण कथं तु घटिते इति शब्दविरोधः ॥ २९ O Vādin (ie Bappabhatti ), how did you compose such Gāthās (with the keywords) 'avaritthiya- liham' and 'cakkayarenant which are avamka (‘not vaika', alternatively, 'lucid') in spite of being vamka ('possessing the quality of vakratā, i e oblique u. ode of expression' ) ? ( 57 ) [36] अब्बो तुमाइ जं-पिच्छएण तं किं पि एत्थ वहरियं । अवरिट्टिय-लीहं जेण देइ पढमं तुहं लोओ ॥५८ 'अव्वों' इत्याश्चर्ये । 'तुम वया 'जंपि (? पि) च्छपण' यत्प्रेक्षकेन किञ्चिदर्शिना तत् किमप्यत्र व्यवहतम् । अवरिट्ठिय-लीह' अप्रतिष्ठितरेषणं अप्रतिष्ठितेषु प्रतिष्ठारहितेषु मध्ये प्रथमां रेखां येन तव ददातीति निन्दा । न वा 'ज' इति यद् यस्मात् प्रेक्षकेन पर्यालोचकेन सता या तत् किम यत्र परेरश [SB] क्य तत्र जगति व्यवहतमनुष्ठितम् येनानन्यगामिना व्यवहतेन 'अवरिट्ठिय-लीह' उपरिस्थितरेखामुपरिस्थितानामुच पदस्थानां मध्ये तव रेखां प्रथमां जनो ददातीत स्तुतिः ॥ Oh! being covetous of whatever you saw ( jain-picchaena) you behaved in such an (unspeakable) manner that people court you as the foremost of notorious persons {Alternatively} Oh, as a cripic ( jam picchaena ) you functioned in such a manner that people count you as the foremost among the eminent. ( 58 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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