Book Title: Tarayana
Author(s): Shankuk, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 61
________________ ३२ [41] फुरिय-पयावस्स तुहं सव्वरिउम्मूलणं कुणंतस्स । सोहति सूर महिहर - सिरेसु परिसंठिया पाया ।। ६४ स्फुरितप्रतापस्य 'तुह' तब 'सम्बरि- उम्मूलण शर्वरी रात्रिः तस्था उन्मूलन निर्नाशं कुर्वतः सतो हे सूर्य, हे भानो, महीधर शिरस्सु गिरिशिखरेषु परिस स्थिताः पादाः किरणाः शाभन्त इत्येकोऽर्थः । तथा हे 'सूर' शौर्ययुक्त, स्फुरितो दीप्रस्तापो जंगदाक्रमणशक्तिर्यस्य स तथा तस्य स्फुरितप्रतापस्य 'सव्व-रिउन्मूलणं' सर्व रिपून्मूलनं कुर्वतः महीधरशिरस्सु राजमूर्धसु परिस स्थिताः प्रतिष्ठिताः पादांश्चरणास्तव हे 'सूर' शौर्यनिधे, शोभन्ते || संकुल- संकलिओ O Sun, destroying the night and scientillating hotly, your rays planted on the mountain peaks appear beautiful. (Alternatively) O hero, uprooting the enemies and exerting prowess, your feet plaated on the heads of kings appear glorious (64) [42] तं परिवति दर्द जाओ कलिम्मि जस्सिं खणं पि निवसंति जत्थ सप्पुरिसा । तई उण सा सा चेय निविआ ।।६५ यत्र स्थाने सत्पुरुषाः क्षणमपि निवसन्ति तद् दृढ परिवर्धयन्तीति न्यायः । जातोऽसि यस्मिन्नेव कलौ काले त्वया पुनः सत्पुरुषेणापि स एव कलिर्निष्ठापितः क्षयं नीतः । निन्दास्तुतिः ॥ That legality where good men stay even for a while is made by them highly prosperous. You, however, eventhough born in the Kali age, have destroyed the same. ( 65 ) Jain Education International [43] दढ - पडिवणंते उर रक्खा - वावारमज्ज कंचुइणो | निंदंति निरत्यय - वित्ति-भुंजया तुज्झ सोहग्गं ॥ ६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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