Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 15
________________ का नाश करने वाला भी स्वयं ही है। सत्कर्म करने वाली आत्मा अपनी मित्र और दुष्कर्म करने वाली आत्मा अपनी शत्रु है। प्रश्न उठ सकता है कि जब आत्मा स्वयं ही अपने सुख, दुःख का कर्ता है तो वह दुःखी होने का कार्य करता ही क्यों है? समाधान यह है कि प्राणिमात्र चाहता तो हमेशा सुख ही है और जितने भी कार्य करता है वह सुख के लिये ही करता है, पर फिर भी नहीं चाहते हुए भी दुःख उसको मिलता है और वह दुःख उसे भोगना भी पड़ता है। जिस प्रकार छोटा बच्चा अज्ञानवश अग्नि या सांप को भी खिलौना समझ कर सुख के लिये उसे पकड़ लेता है तो अज्ञान के फलस्वरूप उसे सुखी के बजाय दुःखी होना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार जब तक आत्मा को अपने अन्दर छुपे हुए ज्ञान का भान नहीं होता तब तक उसे सुख भौतिक पदार्थों जैसे धन, कुटुम्ब, शरीर आदि में दिखता है। इस कारण वह उन पदार्थों से राग या ममत्व करता है, पर चूंकि सभी भौतिक पदार्थ जड़ हैं, न उनमें चेतना है न संवेदना ही तथा न सुख अथवा दुःख ही। जैसे रेत में तेल या पानी में मक्खन का गुण होता ही नहीं तो लाख प्रयत्न करने पर भी मिलेगा कैसे? इसी प्रकार भौतिक वस्तुओं में सुख का गुण है ही नहीं तो मिलेगा कैसे? परन्तु जब तक आत्मा को अपने असली स्वरूप व अपने अन्दर छिपे हुए गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक जीव से शिव, आत्मा से परमात्मा, संसारी से सिद्ध बनने की कला को नहीं जान सकता। ___ जैन दर्शन का मानना है कि आत्मा अपने अज्ञान और मोह को दूर करके अगर अपने अन्दर छुपे हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि शत्रुओं को जीत कर वीतराग बन जाय तो वह अपने ही अन्दर छुपे हुए अनन्त सुख, अतुल शान्ति एवं अपार आनन्द को प्रकट कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन एक सच्चा आस्तिकवादी दर्शन है, जिसमें पहले स्वयं आत्मा पर श्रद्धा या विश्वास होने की बात को आवश्यक बताया गया है, जिसे आगमिक भाषा में सम्यग् दर्शन कहा जाता है। प्रत्येक आत्मा कर्म एवं शरीर के साथ अनादि काल से रहने के कारण वह अपने आपको, शरीर अर्थात् जड़ रूप ही मानने लग जाता है। सुख एवं शान्ति आत्मा का निज गुण होने के कारण सुख एवं शान्ति उसकी नैसर्गिक मांग है। जैसाकि प्रत्यक्ष भी देखा जाता है छोटे से छोटा प्राणी चाहे चींटी हो या कुन्थु, मनुष्य हो या पशु, प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से घबराता है। दुःख से बचने का उपाय और सुख को प्राप्त करने का उपाय जीवन भर करता रहता है, किन्तु जब तक आत्मा को सम्यग् दर्शन नहीं हो जाता तब तक सुख का प्रयास सफल - स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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