Book Title: Suktimuktavali Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan View full book textPage 3
________________ विषयों के सुप्रसिद्ध विद्वान थे । अतः प्रस्तुत प्रन्थ को परम पूज्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज द्वारा जन साधारण जीवों के सदुपयोगी जान सम्पादन कर पाठकों के प्रस्तुत किया जा रहा है । आशा है पाठकगण इससे यथार्थ लाभ उठावेंगे। इसके प्रकाशन में श्री नंदलालजी मांगीलालजी पोस्ट डोमापुर ( नागालेण्ड ) निवासी ने आर्थिक सहयोग देकर अपनी चषचल लक्ष्मी का सदुपयोग किया है, एतदथ उन्हें शतशः धन्यवाद है । न. लाइमल अधिष्ठाता श्री शांतिवीर गुरुकुल, श्री महावीरजी अथ समर्थयति ? सोमप्रभाचार्यममा च यन्न पुंसां तमः पङ्कमपाकरोति । तदप्यमुष्मिन्नुपदेशलेशे निशम्यमानेऽनिशमेति नाशं ॥ ९९ ॥ व्याख्या - सोमप्रभा चन्द्रकान्तिश्च पुन अर्थमभा अर्यमा सूर्यो भा प्रभा सूर्यप्रभाऽपि पुंसां ( जीवानां ) यत्तमःपङ्क अन्धकारकर्दमं न अपाकरोति न दूरीकरोति । तदपि तादृशमपि समः पङ्क' श्रज्ञानपापं भमुष्मिन् उपदेशलेशे ( धर्मोपदेशलपेपि ) निशम्यमाने श्रयमाणे सति अनिशं निरन्तर नाशं चयं पति बाति । एतच्छुवरणाचमः अज्ञानं पापं च याति । अत्र सोमप्रभाचार्य इति प्रन्थकृता वनामापि सूचितं ॥ ६६ ॥ इति पाठान्तरम् । 2Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 155