Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 2
________________ श्राद्य वक्तव्य दिवंगत आचार्य प्रवर श्री १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के सुशिष्य वर्तमान संघनायक परमपूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी संघस्थ १०८ श्री अजितसागरजी महाराज निरन्तर ज्ञानाराधना में तल्लोन रहते हैं। उन्हें सुभाषित श्लोकों का संकलन बहुत प्रिय है इसीके फलस्वरूप उनके द्वारा संकलित सुभाषित मज्जरी के दो भाग और सुभाषितावली ये तीन अन्य प्रकाशित हो चुके हैं । सत्पश्चात १०८ श्री अजितसागरजी महाराज का ध्यान सूक्तिमुक्तावली जिसका दूसरा नाम सिन्दूरप्रकर पर गया। यह लघु काय प्रन्य होते हुये भी बहुत ही लोकप्रिय नीति काव्य है, अपनी सरस और सरल रचना के द्वारा संस्कृत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। इसमें एक सौ सुभाषिन श्लोकों का संग्रह है, जिसमें धर्मोपदेश, तौीकर भक्ति, जिनमतभक्ति, गुरुभक्ति, संघक्ति, पंच पापों का त्याग, चतुः कषायके दोषों का कथन, गुणिजन सङ्गति, इन्द्रियदमान, दानफल, तपाफल इत्यादि अनेक विषयों पर हृदयमादी वर्णन है। यह रचना सरल, सरस तथा सुबोध है। इन्हीं श्लोकों के आधार पर हिन्दी जैन कषि श्री बनारसीदासजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद भी रचे गये हैं। जो कई वर्ष पूर्व मूलसहित प्रकाशित हो चुका है। इस मूल प्रन्थ के कग भी सोमप्रभाघार्य हैं। ये अपने समय के सुप्रतिष्ठित विद्वान थे, धर्म शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, तर्क शास्त्र में ये बहुत पटु थे, काव्य रचना में भी इनकी अच्छी गति थी, व्यास्थानकला में ये अति निपुण थे। प्रस्तुत प्रन्थ की संस्कृत टीका के रचरिता श्री हर्षकीर्ति सूनि हैं। आप वैद्यक, ज्योतिष छन्द, व्याकरण और काम्य आदि अनेक

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