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पुनश्च -
प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथम संस्करण के समय सूक्ति- त्रिवेणी के एक अंग विशेष रूप 'जैन-धारा' के नाम से प्रकाशित हुआ था । पुस्तक ने जैन-अर्जन सभी परम्पराओं के विद्वद् जनों एवं साधारण जिज्ञासु पाठकों के हृदयों को समादर की भावना से आप्लावित किया है । इसकी इतनी मांग रही है, कि सबसे पहले यही संस्करण प्रकाशन - कोष में से समाप्त हुआ । इधर काफी समय से मांग- पर-मांग बढ़ती जा रही थी, किन्तु मैं शारीरिक दृष्टि से वृद्धावस्था से आक्रान्त हुआ और साथ ही रोगाक्रान्त भी । अतः द्वितीय संस्करण को और अधिक पल्लवित और पुष्पित करने की आकांक्षा में समय का प्रवाह काफी दूर तक बह गया और आखिर में अपने संकल्पों को यथाविधि रूपायित न कर सका !
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इधर श्रमण भगवान महावीर की पच्चीसवीं शती के रूप में वैभारगिरिराजगृह की पावन उपत्यका में वीरायतन के पुनीत नाम से मानवीय जीवन के अनेकविध जीवन- आयामों को मंगल-कल्याण के रूप में स्पर्श करता हुआ एक महान संस्थान रूपायित हुआ । उक्त संस्थान का एक अंग मानव-जाति को सद्बोध देने हेतु ज्ञान प्रसार भी है। साथ ही अपने प्राचीन महापुरुषों के द्वारा सुपरीक्षित सांस्कृतिक अनुभवों का प्रचार-प्रसार करना भी है | अतः यथाप्रसंग कुछ अच्छे एवं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन भी वीरायतन माध्यम विगत हुए हैं। और उन्होंने जिज्ञासु जनता में आशा से अधिक स्वागत-सत्कार भी प्राप्त किया है ।
सूक्ति त्रिवेणी का जैन-धारा अंश समाप्त हो गया, तो आचार्य रत्न श्री चन्दनाश्रीजी तथा वीरायतन के उदात्त विचारक अध्यक्ष महोदय श्री नवलमलजी फिरोदिया (पूना) ने आग्रह किया, कि कुछ भी हो कम-से-कम सूक्ति त्रिवेणी का जैन-धर्म से सम्बन्धित अंश तो अभी प्रकाशित हो ही जाना चाहिए । अस्तु, यह पुनर्मुद्रण सुपरिष्कृत रूप में प्रकाशन की भूमिका पर जा रहा है, यह उन्हीं के सदाग्रह का सुफल है । एतदर्थ दोनों महानुभाव ज्ञान-पिपासु जनता की ओर से हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं ।
वीरायतन : राजगृह महावीर केवलज्ञान कल्याणक वैशाख शुक्ल दशवीं
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- उपाध्याय अमर मुनि
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