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किया गया और उनमें भी कुछ प्रमुख ग्रन्थ ही हैं। सम्पूर्ण संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य को यों ही अछूता छोड़ देना पड़ा।
दूसरी बात, दिगम्बर-परम्परा के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की सूक्तियों का बहुत संक्षेपीकरण करना पड़ा, कुछ समयाभाव, कुछ शरीर की अस्वस्थता और कुछ ग्रन्थ की विशालता के भय से ।
मुक्तियों के अनुवाद में एक विशेष दृष्टिकोण रखा गया है। दो हजार वर्ष प्राचीन भाषा के वर्तमान का अर्थ-बोध प्रायः विच्छिन्न-सा हो चुका है। तद्युगीन कुछ विशेष शब्दों और उपभानों से वर्तमान का पाठक अपरिचित-सा है। ऐसी स्थिति में प्राकृत मुक्तियों के शव्दानुवाद में पाठक उनकी मूल भावनाओं को सीधा हृदयंगम नहीं कर पाता, केवल शाब्दिक उलझन में भटक कर रह जाता है। इस दृष्टि से मैंने अनुवाद को भावानुलक्षी रखने का प्रयत्न किया है, ताकि प्राचीनतम प्राकृत-भाषा के मूल अभिप्राय को पाठक सरलता और सरसता के साथ ग्रहण कर सकें। कुछ सांस्कृतिक एवं पारिभाषिक शब्दों से परिचय बनाए रखने की दृष्टि से उन्हें भी यथास्थान रखा गया है और साथ में उनका अर्थ भी दे दिया है।
भुक्तियों को विषयानुक्रम से रखने की कल्पना भी सामने थी। किन्तु, इससे एक ही आगम एवं एक ही आचार्य की मूक्तियाँ बिखर जातीं और उनकी धारा तथा स्वारस्य खण्डित-सा हो जाता, इसलिए उन्हें विषयानुक्रम में नहीं रख कर, ग्रन्थानुक्रम से ही रखा गया है। जिन ग्रन्थों की सूक्तियाँ बहुत ही अल्प मात्रा में ली गई, उन बिखरी हुई सूक्तियों का समावेश अन्त में सूक्ति-कण शीर्षक से कर दिया गया है।
अनेक अजैन विद्वानों की यह शिकायत भी मेरे ध्यान में रही है, कि वे प्राचीन जैन वाङ्मय के सुभाषितों का रसास्वाद लेना चाहते हुए भी ले नहीं पाते हैं, क्योंकि ऐसा कोई संग्रह उनके सामने ही नहीं है, जो स्वल्प श्रम एवं स्वल्प समय में उनकी जिज्ञासा को तृप्त कर सके। मुझे आशा है, कि उनकी इस शिकायत को भी इस संग्रह से कुछ समाधान मिल सकेगा।
___ आशा है, इस संग्रह का प्राचीन सुक्तियों एवं सुभापितों के क्षेत्र में एक नवीनता के साथ पाठक स्वागत करेंगे और इसके स्वाध्याय से वे भारत का कुछ न कुछ पानीन ज्ञानालोक प्राप्त कर प्रमुदित होंगे।
-उपाध्याय अम
नाग पञ्चमी: आगरा दिनांक : १० अगस्त १९६७
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