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सम्पादकीय
लगभग तीन दशक हुए जब 'महावीर वाणी' के सम्पादन में सुविश्रुत पं. बेचरदासजी के साथ कुछ कार्य करने का सुप्रसंग मिला था। तभी से जैन आगम साहित्य की सूक्तियों का विशाल संकलन करने की परिकल्पना अन्तर्मन में रूपायित होने लगी थी । यथावसर वह विकसित एवं गतिशील भी हुई, परन्तु अन्य अनेक व्यवधानों के कारण वह पूर्णता के बिन्दु पर पहुँचकर भी यथाभिलषित मूर्तरूप न ले सकी । इस दीर्घ अवधि के बीच विभिन्न स्थानों से, विभिन्न रूपों में, विभिन्न सूक्ति संकलन प्रकाशित हो चुके हैं । अपने स्थान में प्रत्येक वस्तु की अपनी कुछ-न-कुछ उपयोगिता होती है, इसके अतिरिक्त मैं उनके संबंध में और अधिक क्या कह सकता हूँ । मुझे तो केवल अपनी बात कहनी है, और मै वह कह रहा हूँ ।
कुछ समय पूर्व समय की परतों के नीचे दबी हुई जैन साहित्य के सुभाषितों की अपनी कुछ फाइलें टटोल रहा था, तो विचार आया कि इस अधूरे कार्य को अब पूर्ति के लक्ष्य पर ले आना चाहिए। तभी कुछ स्नेही साथियों और जिज्ञासुओं के परामर्श मिले कि आगम-सूक्तियों के एकाधिक संस्करण प्रकाशित हो जाने पर भी कुछ खटक उनमें रह गई है, इस कारण उनकी सार्वदेशिक उपयोगिता जैसी होनी चाहिए थी, नहीं हो पाई। अतः आप कुछ मार्ग बदल कर चलें, तो अच्छा रहेगा ।
अबतक के प्रकाशित अनेक संकलनों को एक दौड़ती नजर से देख जाने पर यह खटक वस्तुतः मन में खटक जाती है कि बहुत समय पहले जो दृष्टि-बिंदु महावीर वाणी के साथ आगे आया था, अब तक के उत्तरवर्ती संकलनों में कोई भी संकलन उससे आगे नहीं बढ़ा है । प्रायः सभी उसी धुरी के अगल-बगल घूमते रहे हैं, फलतः उन्हीं सुभाषितों का कुछ हेर-फेर के साथ प्रकाशन होता रहा है ।
जैन साहित्य का सूक्ति भण्डार महासागर से भी गहरा है । उसमें एक-सेएक दिव्य असंख्य मणि - मुक्ताएँ छिपी पडी हैं । सुभाषित वचनामृतों का तो वह एक महान् अक्षयसिंधु है । अध्यात्म और वैराग्य के ही उपादेय नहीं, किन्तु पारिवारिक सामाजिक आदि अनेक जीवन- विधाओं के विकास एवं निखार के हेतु नीति, व्यवहार आदि के उत्कृष्ट सुपरीक्षित सिद्धान्त-वचन उनमें यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उन्हें पाने के लिए कुछ गहरी डुबकी लगानी पडती है । किनारेकिनारे घूमने से और दृष्टि को संकुचित रखने से वे दिखाई नहीं दे सकते हैं, पलक मारते सहसा उपलब्ध नहीं हो सकते ।
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