Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ प्राचीन आगमों के अतिरिक्त प्रकीर्णक, नियुक्ति, भाप्य और चूणि-साहित्य आदि में ऐसे प्रेरणाप्रद, जीवन-स्पर्शी, सरस सुभापितों का विशाल भण्डार भरा हुआ है कि खोजते जाइए और उनके रसास्वादन से स्वयं तृप्त होकर दूसरों को भी तृप्त करते जाइए। आचार्य कुन्द कुन्द के अध्यात्म-रस से सुस्निग्ध सुभाषित आत्मा को छूते हुए-से लगेंगे, तो आचार्य भद्रबाहु और सिद्धसेन के सुवचन दर्शन की अतल गहराई से प्रस्फुटित होते जलस्रोत की तरह हृदय को आप्लावित करते हुए प्रतीत होंगे। ये सुभाषित जीवन में उतर जाएँ तो कहना ही क्या, परन्तु यदि इन का सतत स्वाध्याय भी किया जाए, तो भी हृदय में आनन्द की सुमधुर अनुभूतियाँ जगमगाने लगती हैं, एक दिव्य प्रकाश-सा चमकने लगता है और लगता है कि कुछ मिल रहा है, अंधकार की परतें टूट रही हैं, विकल्प शान्त हो रहे हैं और मन, वाणी एवं देह अपूर्व शान्ति, संतोष और शीतलता का अनुभव कर रहे हैं । इस प्रकार की अनुभूति ही अध्ययन की उप. योगिता है, स्वाध्याय की अमर फलश्रुति है । इस संकलन में अज्ञात रूप से प्रेरक एक बात और भी है, जो मन को कुरेदती रही है, एक प्रेरणा बन कर इस कार्य को विराट रूप देने में संकल्पों को दृढ़ एवं दृढ़तर करती रही है । वह है, कि जन-जगत के अनेक लेखक एवं प्रवक्ता जहाँ अपने लेखों तथा प्रवचनों में पुराणों एवं स्मृतियों के कुछ श्लोक, हितोपदेश आदि के कुछ सुभाषित, सूर, तुलसी और कबीर आदि के कुछ दोहे, शायरों के कुछ बहु प्रचलित उर्दू शेर, शेक्सपियर और गेटे की कुछ पंक्तियों का बार-बार उल्लेख करके जन-जीवन में प्रेरणा भरते रहते हैं, वहाँ उनके सरस्वती भण्डार में प्राचीन जैन-साहित्य की सूक्तियों का कुछ अभाव-सा खलता है। ऐसा लगता है कि वे अपने ही साहित्य और संस्कृति से अनजाने रहकर विश्व के सांस्कृतिकसमन्वय की भावना रखते हैं। इस बात में सिर्फ उनका ही दोष नहीं है, किन्तु इस प्रकार की भावना जगानेवाला वातावरण और साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में अभी उपलब्ध भी कहाँ हो रहा है? कुछ अध्ययनशीलता का अभाव और कुछ साहित्य की समुचित उपलब्धि का अभाव और कुछ सांस्कृतिक-परम्परा के संरक्षण की वृत्ति का अभाव - यों इन कारणों से एक प्रकार का सांस्कृतिक हास वर्तमान युग में हो रहा है और इसी सांस्कृतिक -हास ने इस सूक्ति संकलन को कुछ विस्तार देने और साथ ही शीव्रता से सम्पन्न होने में प्रेरणा दी है। जैन साहित्य की सूक्तियों को बहुत व्यापकता के साथ संकलित करने की कल्पना को भी मुझे दो कारणों से सीमित करना पड़ा है। एक संकलन बहुत विशाल हो जाने के भय से सिर्फ प्राकृत साहित्य की सूक्तियाँ ही लेने का निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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