Book Title: Sramana 2015 04 Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय 'श्रमण' के प्रस्तुत अंक में हम जैन आगम और साहित्य पर हिन्दी के चार तथा अंग्रेजी के दो आलेख प्रकाशित कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्माननीय पाठकों के लिये जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखनेवाली, काव्यगुणों से सम्पन्न प्राकृत भाषा में निबद्ध 'कहायणकोस' के कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य साधु धनेश्वरसूरि द्वारा विरचित 'सुरसुंदरीचरिअं' के दशम् परिच्छेद को मूल, उसकी संस्कृत च्छाया, गुजराती तथा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर रहे हैं। प्राकृत में निबद्ध मूलत: इस प्रेमाख्यान में कुल सोलह परिच्छेद हैं। सभी परिच्छेदों की संस्कृत च्छाया तथा गुजराती अनुवाद प. पू. आचार्यप्रवर राजयशसूरीश्वरजी के शिष्य प. पू. गणिवर्य श्री विश्रुतयश विजयजी म.सा. ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद एवं अंग्रेजी में परिचय लेखन स्वयं सम्पादक ने किया है। 'श्रमण' में इस ग्रन्थ का प्रकाशन धारावाहिक के रूप में जनवरी-जून २००४ के अंक से प्रारम्भ हुआ था। जनवरी-मार्च २०१० तक इसके आठ परिच्छेदों का प्रकाशन अनवरत रूप से हुआ किन्तु अपरिहार्य कारणों से यह आगे प्रकाशित नहीं हो पाया। नवम् परिच्छेद की संस्कृत च्छाया पूर्णत: तैयार न हो पाने के कारण, इस ग्रन्थ के दशम् परिच्छेद से हम पुन: इसका प्रकाशन प्रारम्भ कर रहे हैं जो एकान्तर रूप से प्रत्येक दूसरे अंक में प्रकाशित होता रहेगा। आशा है पाठक 'सुरसुंदरीचरिअं' काव्यरस का अब अनवरत रूप से रसास्वादन कर पायेंगे। इस अंक से हम ‘श्रमण' के मुखपृष्ठ पर मानतुंगाचार्य (ई.सन् १३०५) कृत 'भक्तामर स्तोत्र' के एक श्लोक और उसपर आधारित चित्र तथा पार्श्वपृष्ठ पर उसी श्लोक से सम्बन्धित यन्त्र और मन्त्र देने की श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं। तदनुसार ही सचित्र 'भक्तामर स्तोत्र' के ४४ श्लोकों को क्रमश: प्रत्येक अंक के मुखपृष्ठ पर देने की हमारी योजना है। 'भक्तामर स्तोत्र' एक ऐसा बहुप्रचलित एवं पवित्र माना जानेवाला स्तोत्र है जिसे जैनों के सभी सम्प्रदाय समान रूप से स्वीकार एवं पाठस्मरण करते हैं। माना यह जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से व्यक्ति सभी प्रकार के भय और बीमारियों से त्राण पा जाता है। इस महाचामत्कारिक स्तोत्र के श्लोकों एवं तद् आधारित मन्त्रों के जाप से कैंसर जैसे असाध्य रोगों में लाभ पाया गया है। इस स्तोत्र के चिकित्सीय प्रयोग के सन्दर्भ में भारत एवं विदेशों में अनेक शोध चल रहे हैं। प्रो. हर्मन याकोबी ने सन् १८७५ में 'Jain Method of Curing' के अन्तर्गत भक्तामरस्तोत्र के महत्त्व को दर्शाया है। आशा है इस स्तोत्र के क्रमश: प्रकाशन से सम्माननीय पाठक लाभान्वित होंगे। हमारा सदा यही प्रयास रहता है कि 'श्रमण' का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित सभी आलेख शुद्ध रूप से मुद्रित हों। सुधी पाठकों से निवेदन है कि आप हमें अपने बहमूल्य सुझावों/विचारों/आलोचनाओं से अवश्य अवगत कराते रहें ताकि आगामी अंकों में तदनुसार सुधार लाया जा सके। -सम्पादकPage Navigation
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