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4 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३
जानने के लिए मेघरथ की परीक्षा लेने का निश्चय किया । पृथ्वी पर आते समय सुरूप ने एक बाज और कपोत को लड़ते देखा । परीक्षा लेने का निश्चय किया। परीक्षा लेने के उद्देश्य से सुरूप देव कपोत के शरीर में प्रविष्ट हो गये। कपोत प्राणरक्षा के लिए आर्तनाद करता हुआ सभा में बैठे महाराज मेघरथ की गोद में आ गिरा, जो उस समय जिन प्ररूपित धर्म की व्याख्या कर रहे थे। मेघरथ ने कपोत की प्राणरक्षा का वचन दे दिया। कुछ देर बाद बाज भी वहाँ पहुँचा और उसने मेघरथ से कहा कि वह भूख व्याकुल है, इसलिए उसके आहार ( कपोत) को वे लौटा दें। इस पर मेघरथ ने कहा " आश्रित का परित्याग करना क्षत्रिय धर्म (राज धर्म) नहीं है", इसके बाद मेघरथ ने बाज से कपोत के स्थान पर दूध या कुछ और ग्रहण करने को कहा। साथ ही यह भी कहा “जीव-हत्या से विरत होकर अहिंसा नीति का पालन करो, जिससे जन्म-जन्मान्तरों का सुख प्राप्त हो सकें४ ( यह कथन जैन परम्परा की मूल अवधारणा अहिंसा की प्रभावना को व्यक्त करता है ।) इस पर बाज ने कहा “मैं जीवों का ही माँस खाने का अभ्यस्त हूँ। " । " तब मेधरथ ने कहा “इस कपोत के मांस के बराबर अपने शरीर का मांस तुझे दूँगा, जिसे खाकर तुम्हारी क्षुधा - शान्त हो सकें । मेघरथ ने तत्क्षण एक तुला मंगवाया और वे अपने शरीर से माँस काट-काट कर तुला के एक पलड़े पर रखने लगे ( दूसरे पलड़े पर कपोत), परन्तु कपोत के भीतर स्थित देवता ने धीरेधीरे अपना भार बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। अन्त में मेघरथ स्वयं तुला पर बैठ गये। इस प्रकार मेघरथ को किसी भी प्रकार धर्म से च्युत होते न देखकर सुरूप देव ने अन्ततोगत्वा अपने को प्रकट किया और कहा “जिस प्रकार ग्रह स्वस्थान से च्युत नहीं होता, उसी प्रकार आप 'मानवता' से च्युत नहीं हो सकते।"" जीवन के अन्त समय में एक दिन उपरोक्त घटना का स्मरण हो आने पर मेघरथ ने महाशान्ति के बीज रूप संसार - विरक्ति को प्राप्त किया । "
इस प्रकार की कथा हमें भारतीय परम्परा के अन्य धर्मों यथा- वैदिकपौराणिक एवं बौद्ध धर्म में भी प्राप्त होती है। वैदिक पौराणिक
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