Book Title: Sramana 2013 10
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ भाषा-चिन्तन की परम्परा में जैन दर्शन की भूमिका : 15 'दशवैकालिक सूत्र' के सप्तम अध्ययन ‘वाक्यशुद्धि' में भाषा के नैतिक दर्शन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। दिगम्बर आगम ग्रन्थों में षट्खंडागम, महाबन्ध, कषायप्राभृत और कुन्दकुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार', 'समयसार' आदि प्रमुख हैं। षट्खंडागम में छ: खण्ड हैं तथा आगमिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थ होने के कारण इसे आगम सिद्धान्त, खण्डसिद्धान्त आदि नाम दिए जाते हैं। कुन्दकुन्द के ‘पंचास्तिकाय'१० में सप्तभंगी, नय, पदार्थ, आदि विषयों पर सफल लेखनी चली है। कुन्दकुन्द का समय विक्रम की प्रथम शताब्दी अनुमानित किया जाता है। आगमान्तर्गत विभिन्न विषयों को सार रूप में प्रस्तुत करने वाला सूत्रात्मक शैली का ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' भी इसी युग का हैं। आचार्य उमास्वाति इसके रचयिता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में जैन तत्त्व-ज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल आदि समस्त महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन है।११ इस ग्रन्थ की भाषा संस्कृत है। श्वेताम्बर विद्वान् ऐसा मानते हैं कि वाचक उमास्वाति ने स्वयं इस पर भाष्य भी लिखा। 'तत्त्वार्थसूत्र' का रचना काल विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य पूज्यपाद ने छठी शताब्दी में 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'सर्वार्थसिद्धि'१२ नामक एक स्वतन्त्र टीका लिखी। इस प्रकार ‘आगम युग' के दार्शनिक साहित्य के परिशीलन से स्पष्ट होता है कि इस युग के साहित्य में मुख्यत: तत्त्व मीमांसा या आचार मीमांसा को ही महत्त्व दिया गया। आगमयुग के ग्रन्थों में यद्यपि अनेकान्त, नय, प्रमाण आदि ज्ञानमीमांसा के तत्त्वों के बीज यत्र-तत्र बिखरे हैं परन्तु उसका भली-भाँति पल्लवन अनेकान्त स्थापना युग से ही प्रारम्भ होता है। जहाँ तक भाषा-दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रश्न है, भाषा-दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों का भी संकेत आगम युग के दार्शनिक साहित्य से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है तथा उसका उत्तरोत्तर विकास आगे के युगों में देखा जा सकता है।

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