Book Title: Sramana 2013 10
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ भाषा-चिन्तन की परम्परा में जैन दर्शन की भूमिका : 17 मीमांसाक ‘कुमारिलभट्ट' तथा नैयायिक 'उद्योतकर' ने भी बौद्ध दर्शन के खण्डन में अपने ग्रन्थों की रचना की। इस युग की मुख्य विशेषता थी, स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन। जैन दार्शनिक भी इस खण्डन-मण्डन के परिवेश से अछूते न रह सके तथा 'भट्ट अकलंक देव' ने जैनन्याय के विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों के द्वारा जैन प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा की। यह युग आठवीं शताब्दी से लेकर लगभग १५वीं शताब्दी तक का है। ‘हरिभद्रसूरि' ने इसी युग में जैन दर्शन के पक्ष को सबल बनाने के लिए 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' तथा 'षड्दर्शनसमुच्चय' जैसे अप्रतिम ग्रन्थों का प्रणयन किया।५ प्रमाणव्यवस्था युग में मुख्य रूप से प्रमाणों की सुव्यवस्थित व्यवस्था हुई। इसके पूर्व आगम युग व अनेकान्त स्थापन युग में पंच ज्ञानों की चर्चा आई थी तथा सिद्धसेन के 'न्यायावतार' में प्रमाणों की चर्चा का प्रारम्भिक स्तर ही दृष्टिगत होता है। जैन भाषा-दर्शन विषयक सामग्री की खोज करने पर इस युग में 'शब्दप्रमाण' की चर्चा में भाषादर्शन सम्बन्धी सामग्री प्रचुर रूप में उपलब्ध होती है। अत: भाषा-दर्शन की दृष्टि से भी प्रमाण व्यवस्था युग का दार्शनिक साहित्य विशेष उपयोगी सिद्ध होता है। जैन भाषा-दर्शन के सिद्धान्तों के आकलन के लिए इस युग के दार्शनिक साहित्य का परीक्षण आवश्यक हो जाता है। भाषादर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों का विशेष ऊहापोह पूर्वक निष्पादन इस युग के साहित्य की उपलब्धि कही जा सकती है। नव्य-न्याय-युग विक्रम की तेहरवीं शताब्दी में उदित 'गंगेश उपाध्याय' नव्यन्याय शैली के जन्मदाता कहे जाते हैं। इनकी शैली से प्रभावित होकर तत्कालीन दार्शनिकों ने अपने-अपने सम्प्रदाय का विकास इसी शैली में किया। यद्यपि अन्य सभी दार्शनिक सम्प्रदाय नव्य-न्याय की शैली को अपनाकर नवीन रूप में अपने दार्शनिक विचारों की स्थापना कर चुके थे। परन्तु जैन परम्परा में सत्रहवीं शताब्दी तक नव्यन्याय शैली में किसी ग्रन्थ की

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