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अनेकान्तवाद : उद्भव और विकास : 25
अद्यतन उपलब्ध समग्र साहित्य को ध्यान में रखकर प्रो० महेन्द्र कुमार
जी ने काल विभाग इस प्रकार किया है
१. सिद्धान्त आगमकाल २. अनेकान्त स्थापना काल ३. प्रमाण व्यवस्था युग ४. नवीन न्याय युग
वि० ६वीं शती तक
वि० ७-८वीं शती तक
वि० ८ - १७ वीं शती तक
वि० १८वीं शती से
अनेकान्त का स्वरूप : प्रत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक आधारभूत विशेष दृष्टि होती है, जैसे- भगवान् बुद्ध की अपने धर्म प्रवर्तन में मध्यमप्रतिपदा दृष्टि है और शंकराचार्य की अद्वैतदृष्टि है। जैनदर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की मूलदृष्टि अनेकान्तवाद है। जैन वास्तव में अनन्तपदार्थवादी हैं। अनन्त आत्मद्रव्य, अनन्त पुद्गल द्रव्य और असंख्यात कालाणु द्रव्य-- इस तरह अनन्तात पदार्थ पृथक्-पृथक् अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं। किसी भी सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता और न ही कोई नूतन सत् उत्पन्न होता है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय अपनी पूर्वपर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय को धारण करता है। यह उसका स्वभाव है कि वह प्रतिसमय परिणमन करता रहे। इस तरह पदार्थ पूर्व पर्याय का विनाश, उत्तर पर्याय का उत्पाद तथा ध्रौव्य इन तीन लक्षणों को धारण करते हैं। १° इस तरह प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इसके विलक्षण रूप है। यही जैन परम्परा में परिणाम का लक्षण है और लक्षण के अनुसार जैन दर्शन को परिणामी नित्यवादी दर्शन कहा जाता है।
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जगत् का कोई भी पदार्थ क्यों न हो वह अनन्तगुणात्मक है उन अनन्तगुणों का परिणमन भिन्न-भिन्न निमित्तों से विभिन्न प्रकार का हुआ करता है। उन विभिन्न विशेषताओं को जब विभिन्न दृष्टिकोणों (अपेक्षाओं) से जाना जाता है तब प्रत्येक पदार्थ अनेक रूपों में प्रतीत होता है। ११ जैनदर्शन में वस्तु का स्वरूप अनेकान्तवाद माना गया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार