Book Title: Sramana 2013 10
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 31
________________ 24 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ तो कठिन है, किन्तु यदि भगवान् के दर्शन की विशेषता और प्रस्तुत चित्र-विचित्र विशेषण का कुछ मेल बिठाया जाए, तब यही संभावना की जा सकती है। यह विशेषण साभिप्राय है और इससे सूत्रकार ने भगवान् के उपदेश की विशेषता अर्थात् अनेकान्तवाद को ध्वनित किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करें, इस प्रश्न के प्रसंग में कहा है- विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद के संदर्भ में अधिक जानने के लिए बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है। मज्झिमनिकाय में शुभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा - हे माणवक! मैं यहाँ विभज्जवादी हूँ एकांशवादी नहीं। जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद करते हैं। एकान्तवाद और अनेकान्तवाद का भी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है। ऐसी स्थिति में सूत्रकृतांग गत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तत्त्व के विवेचन का वाद भी लिया जाये तो ठीक होगा। अपेक्षादि से स्यात् शब्दांकित प्रयोग आगम में देखे जाते हैं। एकाधिक भंगों का स्याद्वाद भी आगम में मिलता है। अतएव आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद भी कहा जाए तो अनुचित नहीं। भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था और भगवान् महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक था। यही कारण है कि जैनदर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया और बौद्धदर्शन किसी अंश में विभज्यवाद होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार विभज्यवाद का अर्थ है, “हर समस्या को विश्लेषित करके देखो, समस्याओं को मिलाओ। समस्या के समाधान में मिश्रण वाली बात व्यापक बनती है। समस्या को विभिन्न कोणों से देखना और सोचना होता है।

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